गोकुळाष्टमी २०१६ ते गोकुळाष्टमी २०१७: अभंग ज्ञानेश्वरी पारायण-पद्धती दिन-क्रम:

ऑडिओ: स्वामीजींसह पहिल्या अध्यायाचे परायण

 

पारायणासाठी स्वामींच्या सूचना:

•    पारायण करताना शांतपणे वाचावे म्हणजे श्लोक, ओव्या किंवा अभंगाचा अर्थ समजून येईल. 

•    रोज १ - १.५ तासच वेळ द्यावा लागेल. हा वेळ सलग न देता आल्यास, तो २ किंवा ३ भागात देऊन दिवसाचे पारायण पूर्ण करावे

•    प्रथम गीतेचा श्लोक, नंतर भावार्थ गीतेतून त्याचा अर्थ आणि त्यानंतर अभंग ज्ञानेश्वरी वरून त्याचे विवरण ह्या क्रमाने वाचन होईल. 

•    १८ अध्यायांवरील हे पारायण ३० दिवसांमध्ये (१ महिना) विभागलेले आहे. (त्याचे विभाजन आपल्याला खालील 'अभंग ज्ञानेश्वरी पारायण-पद्धती दिन-क्रम' ह्यात दिसेल.) रोज पारायण केल्यास, गोकुळाष्टमी २०१६ ते गोकुळाष्टमी २०१७ ह्या कालावधीत अभंग ज्ञानेश्वरीची एकूण १२ पारायणे होतील. 

•    पारायण केल्याचे 'पुण्य', आणि मोजकेच-शांतपणे-अर्थ-समजून-वाचल्यामुळे, 'ज्ञान', हे दोन्ही प्राप्त झाल्याचे समाधान मिळेल.

•    जगभरच्या साधकांकडून त्या त्या दिवशीचे दिलेले भाग वाचलेले जाणार आहे. त्यामुळे ह्याला सार्वत्रिक पारायणाचे स्वरूप प्राप्त होईल.

•    दररोज पारायण झाल्यावर:
       ◦    अभंग ज्ञानेश्वरीतील श्री ज्ञानदेव वंदनाच्या पाच ओव्या म्हणाव्यात. (श्री ज्ञानदेव - वंदन: Read)
       ◦    "ॐ राम कृष्ण हरी"  हा मंत्र बारा वेळा म्हणावा.

•    इच्छुकांना जगातील कोणत्याही ठिकाणी बसून हे पारायण करता येण्यासाठी, स्वरुपयोग प्रतिष्ठानाने खालील 'दिन-क्रमा'नुसार आपल्याला पारायण-पाठ करून देण्याचा प्रकल्प हाती घेतला आहे. प्रत्येक दिवसाचे पारायण-पाठ तयार झाल्यावर त्याची लिंक सर्वांना दिली जाईल. ह्या लिंक वर क्लिक केल्यास पारायण-पाठ आपल्याला मोबाईल किंवा कम्पुटरवर वाचता येईल. दुसऱ्या लिंक वर क्लिक केल्यास हाच आपल्याला PDF स्वरूपात डाउनलोड करता येईल. डाउनलोड केल्यानंतर आपण तो प्रिंट करू शकता.   

•    हा प्रकल्प पूर्ण होईपर्यंत आपण भगवद्गीता, भावार्थ गीता आणि अभंग ज्ञानेश्वरी, खालील लिंक वर डाउनलोड करून वाचावीत, ही विनंती!
       ◦    भगवद्गीता: View/Download

       ◦    भावार्थ गीता: View/Download

       ◦    अभंग ज्ञानेश्वरी: View/Download  
 

वरील सूचना आणि दिन-क्रम PDF स्वरूपात डाउनलोड करून प्रिंट करू शकता: Download 

 

 

"संतांचे वाङ्मय आणि स्मरण यातून त्यांचा मानसिक सहवास लाभतो. तो मोलाचा असतो. त्यांच्या ईश्वरीय ज्ञान आणि प्रेमाच्या संवेदनारुपी प्रकाशकिरणांनी आपली भावना फुलासारखी उमलत जाते आणि आतला ज्ञानाचा कंद प्रकट होऊ लागतो."
- स्वामी माधवानंद 

 

 

 

 

 

 

Adhyay 1

Adhyay 2

अभंग ज्ञानेश्वरी पारायण-पाठ

दिवस ०१

अध्याय ०१

(अर्जुनविषादयोग)

गीता श्लोक १-४७

अभंग ज्ञानेश्वरी ओवी क्रमांक १-४३०

 

आत्मरूपा तुज | करीं नमस्कार | तुझा जयजयकार | असो देवा ||१||

ॐकारस्वरूपा | तूं चि सर्वां मूळ | व्यापोनि सकळ | राहिलासी ||२||

सर्व सर्वातीत | तूं चि सर्वात्मक | विषय तूं एक | वेदांलागीं ||३||

‘नेति नेति’ ऐसें | बोलती ते वेद | स्वरूप अगाध | तुझें देवा ||४||

जाणावयाजोगा | आपणा आपण | म्हणोनियां मौन | वेदांसी हि ||५||

आत्मरूपा देवा | तूं चि गणाधीश | बुद्धीचा प्रकाश | सकलांच्या ||६||

आतां ऐका ऐसें | म्हणे श्रोतयांस | निवृत्तीचा दास | ज्ञानदेव ||७||

पूर्ण शब्दब्रह्म | गणेशाची मूर्ति | सजलीसे किती | मनोरम ||८||

वर्णरूप शोभे | शरीर निर्मळ | सौंदर्य सोज्ज्वळ | खुले तेथें ||९||

कैसी रसपूर्ण | देहाची ठेवण | प्रकटली खाण | लावण्याची ||१०||

वेगळाल्या स्मृती | ते चि अवयव | सौंदर्याची ठेव | अर्थ-शोभा ||११||

अठरा पुराणें | शोभती साचार | जणूं अलंकार | रत्नमय ||१२||

वेंचोनियां नाना | प्रमेयांचे मणी | पद्याचे कोंदणीं | बैसविले ||१३||

सहज सुंदर | शब्दांची रचना| वस्त्र तें चि जाणा | रंगदार ||१४||

साहित्याचा धागा | नाजूक अत्यंत | दिसे ओतप्रोत | झळाळत ||१५||

काव्य-नाटकें तीं | जणूं घागऱ्या च | ऐसें वाटे साच | निर्धारितां ||१६||

आणि अर्थ-ध्वनि | करी रुणझुण | हालतां चरण | गणेशाचे ||१७||

नाना प्रमेयांची | चातुर्यें गुंफण | करोनि पैंजण | घडिलासे ||१८||

योग्य पदें हींच | तेथ रत्नें भलीं | जरी विलोकिलीं | सूक्ष्मदृष्टी ||१९||

व्यासादिक कवि -| श्रेष्ठांची जी मति | तो चि शेला कटीं | शोभतसे ||२०||

नितांत निर्मळ | तयाचे पदर | झळकती सुंदर | अग्रभागी ||२१||

सहा शास्त्रें तीच | भुजांची आकृति | वेगळाले देती | अभिप्राय ||२२||

म्हणोनियां हातीं | आयुधें हि भिन्न | दाखवाया खूण | आपुलाली ||२३||

तर्क तो परश | न्याय तो अंकुश | मोदक सुरस | वेदान्ताचा ||२४||

बौद्ध वार्तिकांचें | जे का बौद्धमत | तो चि छिन्न दंत | योगाहातीं ||२५||

मग सांख्यमत | तो चि पद्महस्त | स्वभावें जो देत | वर-दान ||२६||

धर्मसूत्रें जीं का | धर्मसिद्धिप्रद | तो चि येथें सिद्ध | अभयहस्त ||२७||

निर्मळ विवेक | सरळ ती सोंड | जेथें महानंद | स्व-सुखाचा ||२८||

संवाद तो दंत | दुजा शोभे संगें | समत्वाच्या योगें | शुभ्रवर्ण ||२९||

ज्ञानरूप भले | पहा सूक्ष्म डोळे | शोभती आगळे | विघ्नेशाचे ||३०||

दोन हि मीमांसा | ते चि दोन्ही कान | ऐसें माझें मन | सांगे मज ||३१||

गंडस्थलांतून | स्वभावें संतत | बोधमदामृत | पाझरे जें ||३२||

तेथें मुनिजन | होवोनि भ्रमर | जाहले अमर | सेवितां तें ||३३||

मतें द्वैताद्वैत | पावती ऐक्यातें | तुल्यबलें तेथें | गंडस्थलीं ||३४||

नाना तत्त्वार्थांचीं | सतेज पोंवळीं | कैसी विराजलीं | गजाननीं ||३५||

दशोपनिषदें | पुष्पें सुगंधित | नित्य उधळीत | ज्ञान-रेणू ||३६||

सहज सुंदर | मनोरम अति | शोभती मुकुटीं | पहा कैसीं ||३७||

अकार पाउलें | उकार उदर | दिसे मनोहर | विशालत्वें ||३८||

मकार तो महा- | मंडलासारिखा | आकार आलेखा | मस्तकाचा ||३९||

अ उ म हे तिन्ही | होतां एकवट | ॐकार प्रकट | दिसूं लागे ||४०||

गुरुकृपें आदि -| बीज तें वंदिलें | जेथ सामावलें | शब्द-ब्रह्म ||४१||

आतां वंदितसें | देवी शारदेस | जिचा वाग्विलास | नित्य नवा ||४२||

चातुर्य-वागर्थ -| कलेची स्वामिनी | विश्वासी मोहिनी | घालिते जी ||४३||

भवार्णवीं जेणें | तारियलें मज | तो श्रीगुरूराज | हृदयीं माझ्या ||४४||

म्हणोनियां प्रेम | वाटतसे फार | मज सारासार-| विचाराचें ||४५||

पायाळूच्या डोळां | घालितां अंजन | पाहूं शके धन | भूमिगत ||४६||

किंवा चिंतामणि | होतां हस्तगत | सर्व मनोरथ | सदा पूर्ण ||४७||

ज्ञानदेव म्हणे | तैसा पूर्णकाम | झालो घेता नाम | निवृत्तीचें ||४८||

म्हणोनियां भावें | गुरू-नाम घ्यावें | कृतकृत्य व्हावें | जाणत्यानें ||४९||

वृक्षाचिया  मूळीं | घालितां उदक | देखा शाखादिक | संतोषती ||५०||

किंवा भावें होता | सागरीं सुस्नात | जैसीं घडतात | सर्व तीर्थें ||५१||

अमृताची गोडी | चाखिली जयानें | सेविले तयानें | सर्व रस ||५२||

तैसा भक्तिभावें | मियां वारंवार | केला नमस्कार | श्रीगुरूसी ||५३||

इच्छावें जें मनें | ते ते यथारुचि | पुरविता तो चि | म्हणोनियां ||५४||

आतां सावधान | ऐका श्रोतेजन | कथा जी गहन | भारताची ||५५||

विवेक-वृक्षांचें | अपूर्व उद्यान | कौतुकांची खाण | सकल हि ||५६||

सर्व सुखांचें जी | असे जन्म-स्थान | कीं महा-निधान | प्रमेयांचें ||५७||

नऊ हि रसांचा | परिपूर्ण देखा | सुधा-सिंधु जी का | रसाळत्वें ||५८||

सर्व विद्यांचें जी | असे मूळस्थान | मोक्षाचें निधान | प्रकटलें ||५९||

किंवा जी का सर्व | शास्त्रांसी आधार | धर्माचें माहेर | सकलहि ||६०||

शारदेच्या शोभा- | रत्नांचें भांडार | नातरी जिव्हार | सज्जनांचें ||६१||

किंवा महाबुद्धी-| माजीं व्यासांचिया| देखा स्फुरोनियां | सरस्वती ||६२||

त्रिलोकामाझारीं | जाहली प्रकट | ऐशा सर्वश्रेष्ठ | कथारूपें ||६३||

काव्यराज नांव | म्हणोनि ह्या ग्रंथा | रसां रसाळता | येथोनी च ||६४||

पावली शब्दश्री | येथें सत्-शास्त्रता | वाढली मृदुता | महा-बोधीं ||६५||

चातुर्य तें येथें | शाहणें जाहलें | प्रमेय नटलें | गोडपणें ||६६||

सुखाचें सौभाग्य | पोसलें ह्या ठायीं | थोरपणा येई | उचितासी ||६७||

येथे माधुरीसी | आली मधुरता | तेविं सुरेखता | शृंगारासी ||६८||

कलेसी कौशल्य | प्राप्त झालें भलें | पुण्या तेज आलें | आगळें चि ||६९||

जनमेजयाचे | म्हणोनि नि:शेष | हारपले दोष | अनायासें ||७०||

पाहतां क्षणैक | रंगासी आगळें | तेज तें चढलें | सुरंगाचें ||७१||

तेविं येथोनी च | थोर भलेपणा | लाधलासे जाणा | सद्‌‌गुणांसी ||७२||

उजळे त्रैलोक्य | सूर्य-प्रकाशांत | व्यास-मति-व्याप्त | विश्व तैसें ||७३||

चोखाळोनि भूमि | पेरियलें बीज | विस्तारे सहज | जैशा रीती ||७४||

यथारुचि तैसे | स्वभावें सर्वार्थ | झाले प्रफुल्लित | भारतीं ह्या ||७५||

किंवा नगरांत | रहावया जावें | मग सभ्य व्हावें | जिया परी ||७६||

तैसें व्यासोक्तीचें | तेज प्रकटलें | तेणें उजळलें | सर्व कांहीं ||७७||

तारुण्यीं बहर | दिसे आगळाच | स्त्रियाअंगीं साच | सौंदर्याचा ||७८||

ना तरी वसंतीं | प्रकटते ठेव | उद्यानीं अपूर्व | वनश्रीची ||७९||

नाना अलंकारीं | नटोनि सुवर्ण | दावी बरवेपण | आगळें चि ||८०||

तैसें व्यासोक्तीनें | होतां अलंकृत | होय शोभा प्राप्त | कोणातें हि ||८१||

म्हणोनियां वाटे | इतिहासें काय | घेतला आश्रय | भारताचा ! ||८२||

प्रतिष्ठा संपूर्ण | लाभावी म्हणोन | अंगीं लीनपण | धरोनियां ||८३||

अठरा हि पुराणें | आख्यानांचे द्वारा | येथें आली घरा | भारताच्या ||८४||

देखा जें जें महा-| भारतीं नाढळे | शोधितां न मिळे | त्रैलोक्यीं तें ||८५||

म्हणोनियां ऐसें | बोलती यथार्थ | असे व्यासोच्छिष्ट | जगत्रय ||८६||

ऐका परमार्था | जी का जन्म-स्थान | सर्वां रसीं पूर्ण | जगामाजीं ||८७||

ऐसी सर्वोत्तम | शुद्ध अनुपम | जी का मोक्ष-धाम | अद्वितीय ||८८||

वैशंपायन तो | मुनि तीच कथा | सांगे नृपनाथा | जनमेजया ||८९||

जो का भारताचा | सुगंध-पराग | विख्यात प्रसंग | गीतानामें ||९०||

यादवांचा राणा | प्रभु कृष्णनाथ | संवादला जेथ | अर्जुनाशीं ||९१||

व्यासें मंथोनियां | वेदांचा सागर | काढिलें अपार | नवनीत ||९२||

ज्ञानाग्नीच्या योगें | कढवितां विवेकें | पावे परिपाकें | साजूकता ||९३||

इच्छिती विरक्त | भोगिती जें संत | ज्ञाते रमती जेथ | सोऽहंभावें ||९४||

करावें श्रवण | जें का भक्तजनीं | जें का त्रिभुवनीं | आदिवंद्य ||९५||

बोलिलें तें थोर- | भारताचें सार | प्रसंगानुसार | भीष्मपर्वीं ||९६||

वाखाणिती ज्यास | शिव-ब्रह्मदेव | भगवद्‌गीता नांव | सुविख्यात ||९७||

सेविती जें नित्य | सनकादिक मुनी | विनम्र होवोनि | अत्यादरें ||९८||

शरद् ऋतूमाजीं | चंद्रकलेतील | कण जे कोमल | अमृताचे ||९९||

करोनियां मन | मृदुल आपुलें | चकोराचीं पिलें | वेंचिती ते ||१००||

तैसी च ही अति | हळुवारपणें | कथा श्रोतृजनें | अनुभवावी ||१०१||

मूकपणें येथें | करावा संवाद | घ्यावा रसास्वाद | अतींद्रिय |१०२||

बोलाचिया आधीं | प्रमेयाची खूण | घ्यावी आकळून | यथार्थत्वें ||१०३||

घेवोनि पराग | भृंग जैसे जाती | परि तें नेणती | पद्म-दळें ||१०४||

त्या च परी व्हावी | येथें कुशलता | प्रेमें हा सेवितां | गीता-ग्रंथ ||१०५||

चंद्रोदयीं त्यासी | देई आलिंगन | स्व-स्थानीं राहोन | कुमुदिनी ||१०६||

कैशा परी घ्यावा | प्रीतीचा संभोग | जाणे सांगोपांग | तीच एक ||१०७||

तैसा तो चि जाणे | तत्त्वतां गीतार्थ | गंभीर प्रशांत | चित्त ज्याचें ||१०८||

अहो ग्रंथाचें ह्या | करावें श्रवण | पंक्तीसी बैसोन | पार्थाचिया ||१०९||

ऐशा योग्यतेचे | तुम्ही संतजन | द्यावें अवधान | कृपाबुद्धी ||११०||

तुमचें हृदय | सखोल म्हणोनि | पायीं विनवणी | सलगीची ही ||१११||

ऐकोनियां जैसा | बालकाचा बोल | प्रेमें येई डोल | मायबापां ||११२||

तैसा तुम्हीं मातें | आपुला लेखिला | अंगीकार केला | संतजनीं ||११३||

म्हणोनि जें उणें | साहाल तें सुखें | कासया हें मुखें | विनवावें ||११४||

परी आगळीक | आणिक ती येथ | पाहें मी गीतार्थ | कवळाया ||११५||

ऐका प्रभो तुम्हां | संत श्रोते जनां | करितों प्रार्थना | ह्या चि लागीं ||११६||

हें तों अनावर | न झाला विचार | वायां चि हा धीर | केला येथें ||११७||

नाहीं तरी देखा | प्रकाशता सूर्य | काजव्याची काय | शोभा तेथें ||११८||

किंवा चोंचीनें च | अब्धि आटवाया | प्रवर्तली वायां | टिटवी जैसी ||११९||

नेणता मी तैसा | असोनि सर्वथा | सांगाया गीतार्था | सिद्ध झालों ||१२०||

ऐका आकाशातें | कवळूं पहावें | तरी मोठें व्हावें | त्याहुनी हि ||१२१||

म्हणोनि हें माझ्या | योग्यतेबाहेर | आघवे साचार | पाहूं जाता ||१२२||

अहो गीतार्थाचें | काय थोरपण | स्वयें विवरून | दावी शंभु ||१२३||

जेथ ती भवानी | पावोनि आश्चर्य | विचारितां काय | बोले तिज ||१२४||

देवी तुझें रूप | नाकळे गे जैसें | नित्य नवें तैसें | गीता-तत्त्व ||१२५||

योगनिद्रेमाजीं | जयाचा कीं घोर | वेदार्थ-सागर- | रूप झाला ||१२६||

तो चि सर्वेश्वर | बोलिला प्रत्यक्ष | तत्त्व हें अलक्ष्य | अर्जुनाशीं ||१२७||

ऐसें जें गहन | वेदां जेथें मौन | तेथें मी अजाण | काय बोलूं ? ||१२८||

अपार हें सार | कैसें आकळावें | कोणें धवळावें | भानु-तेज ||१२९||

मशकानें कैसा | आकाशाचा प्रांत | धरावा मुठींत | सांगा बरें ||१३०||

परी मज येथें | आधार तो एक | म्हणोनि नि:शंक | बोलतसें ||१३१||

ज्ञानदेव म्हणे | माझा पाठीराखा | निवृत्ति तो देखा | गुरुराव ||१३२||

एऱ्हवीं मी एक | अज्ञान बालक | झाला अविवेक | जरी येथें ||१३३||

तरी संतकृपा- | दीपक सोज्ज्वळ | तेणें चि सबळ | केलों आतां ||१३४||

अहो लोहाचें हि | होतसे सुवर्ण | सामर्थ्य तें पूर्ण | परिसाचें ||१३५||

किंवा मृतातें हि | लाभे सजीवता | तया मुखीं जातां | अमृत तें ||१३६||

जरी का वाग्देवी | सरस्वती भेटे | तरी वाचा फुटे | मुक्यातें हि ||१३७||

वस्तुसामर्थ्याचें | बळ हें केवळ | नसे हो नवल | येथें काहीं ||१३८||

जयातें लाभली | कामधेनु माता | सर्व काहीं हाता | येई त्याच्या ||१३९||

तैसा श्रीसमर्थ | म्हणोनि हा ग्रंथ | रचावया हात | घातला मीं ||१४०||

तरी श्रोतेजन | येथें जें जें न्यून | तें तें घ्यावें पूर्ण | करोनियां ||१४१||

आणि जें अधिक | घ्यावें तें मानोनि | ऐसी विनवणी | माझी तुम्हां ||१४२||

बाहुली ती नाचे | जैसी सूत्राधीन | तैसा मी बोलेन | बोलविल्या ||१४३||

द्यावें अवधान | अहो संतजन | व्हावें कृपापूर्ण | मजवरी ||१४४||

साधूंचा अंकित | निरोप्या मी दूत | मज ते नटवोत | निजेच्छेनें ||१४५||

होवोनि प्रसन्न | तंव गुरुदेव | म्हणती प्रस्ताव | पुरे आतां ||१४६||

हें तों सर्व कांहीं | आम्हालागीं ठावें | न लगे बोलावें | ज्ञानदेवा ||१४७||

आम्ही तुजलागीं | दिलें वरदान | गीतार्थ-व्याख्यान | करी त्वरें ||१४८||

श्रीगुरु-वचन | ऐकोनि सादर | आनंद-निर्भर | होवोनियां ||१४९||

म्हणे श्रोतयांस | निवृत्तीचा दास | ऐका सावकाश | कथाभाग ||१५०||

 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |

धृतराष्ट्र उवाच –

 

धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: |

मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ||१||

 

धृतराष्ट्र म्हणे, ‘कुरू क्षेत्र जें पावन धर्म स्थान

संग्रामास्तव उभे ठाकले तिथें घेउनी बाण ||१||

माझे आणिक कुमर पंडुचे काय तयांनीं केलें

सांग संजया, तें ऐकाया असती कान भुकेले.’ ||२||

 

पुसे धृतराष्ट्र | संजयालागोनि | मोहित होवोनि | पुत्र-प्रेमें ||१५१||

म्हणे सांगें मज | जें का धर्मालय | तेथें झालें काय | कुरू-क्षेत्रीं ||१५२||

जेथें ते पांडव | आणि माझे पुत्र | मिळाले एकत्र | युद्धालागीं ||१५३||

एवढ्या वेळांत | परस्परें त्यांनीं | काय केलें झणीं | सांगें मज ||१५४||

 

संजय उवाच –

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा |

आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ||२||

 

संजय बोले कौरवेश्वरा, ऐक चित्त देऊन

पांडव-सेना रणीं राहिली नाना व्यूह रचून ||३||

अवलोकुनि ती मुळीं न नृ-पति दुर्योधन घाबरला

द्रोणाचार्यांनिकट येउनी बोल बोलता झाला ||४||

 

तिये वेळीं काय | संजय तो बोले | सैन्य उफाळलें | पांडवांचें ||१५५||

कल्पांताच्या वेळीं | कृतांताचें मुख | पसरावें देख | जैशा रीती ||१५६||

तैसें तें घनदाट | उठे एकवाट | जणूं काळकूट | उसळलें ||१५७||

किंवा वडवाग्नि | पेटे अकस्मात | भेटे महा-वात | तों चि त्यासी ||१५८||

मग त्याच्या ज्वाला | शोषोनि सागरा | झोंबाव्या अंबरा | जैशा रीती ||१५९||

तैसा दळ-भार | पाहतां दुर्धर | भासला भेसूर | तिये काळीं ||१६०||

ठाकतां सामोरा | हत्तींचा मेळावा | जैसा उपेक्षावा | सिंहराजें ||१६१||

तैसा नाना व्यूहीं | कौशल्यें रचिला | तुच्छ तो लेखिला | दुर्योधनें ||१६२||


 

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् |

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता

पश्य, एताम्, पाण्डुपुत्राणाम्, आचार्य, महतीम्, चमूम्,

व्यूढाम्, द्रुपदपुत्रेण, तव, शिष्येण, धीमता ||३||

 

म्हणे, ‘गुरू-वरा, पहा जरा ही विशाळ पांडव-सेना

तयें चि रचिली द्रुपद-पुत्र जो तुमचा शिष्य शहाणा ||५||

 

राजा दुर्योधन | मग द्रोणापासी | येवोनि तयासी | काय बोले ||१६३||

म्हणे देखिलें का | कैसें उभारले | सैन्य उसळले | पांडवांचें  ||१६४||

वाटे गिरि-दुर्ग | जणूं ते चालते | रचिले भोंवते | नाना व्यूह ||१६५||

राजा द्रुपदाचा | पुत्र धृष्टद्युम्न | ज्यासी विद्या-दान | केलें तुम्हीं ||१६६||

तुमचा तो तज्ञ | शिष्य असामान्य | तेणें चि हें सैन्य | उभारिलें ||१६७||


 

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि |

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ:  ||४||

 

पाहा पहा हे महा-धनुर्धर येथ शूर नर-वीर

युद्धीं भीमार्जुनांसारिखे थोर निपुण रण-धीर ||६||

महा-रथी हा द्रुपद सात्यकी येथें नृ-पति विराट

धृष्टकेतु हा चेकितान हा काशिराज बलवंत ||७||

 

तैसे चि विशेष | शस्त्रास्त्रीं प्रवीण | वीर जे निपुण | क्षात्र-धर्मीं ||१६८||

सामर्थ्य योग्यता | तेविं पराक्रम | भीमार्जुनांसम | असे ज्यांचा ||१६९||

तयांचीं हि नांवे | कौतुके साचार | प्रसंगानुसार | सांगतों मी ||१७०||

महायोद्धा येथें | सात्यकी विराट | महारथी श्रेष्ठ | द्रुपद हि ||१७१||

 

धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान् |

पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्‍गवः ||५||

 

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् |

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा: ||६||

 

धृष्टकेतु हा चेकितान हा काशिराज बलवंत ||७||

तसा चि पुरूजित् कुंतिभोज तो शैब्य नरेश हि दिसतो

विक्रमशाली युधामन्यु तो तसा उत्तमौजा तो ||८||

आणि सुभद्रा-सुत सु-धीर हा अभिमन्यु असे येथें

तसे द्रौपदी-कुमर सकल हि महा-रथी ते तेथें ||९||

 

शूर चेकितान | आणि काशिराजा | वीर उत्तमौजा | धृष्टकेतु ||१७२||

शैब्यराजा तैसा | युधामन्यु पाहें | येथे आला आहे | कुंतिभोज ||१७३||

पुरुजितादिक | सकळ हे राजे | देखा हा विराजे | अभिमन्यु ||१७४||

जो प्रतिअर्जुन | सुभद्रेचा प्राण | द्रौपदी-नंदन | आणिक हि ||१७५||

ऐसे हे सकळ | महा-रथी वीर | असंख्य अपार |  आले येथें ||१७६||


 

अस्माकं तू विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम |

नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ||७||

 

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजय: |

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ||८||

 

ध्यानीं घ्यावे प्रमुख आमुचे नायक जे सैन्याचे

तुम्हां कळावे ह्यास्तव करितों दिग्दर्शन मी त्यांचें ||१०||

 

आपण तैसे भीष्म पितामह विजयी कृप हा कर्ण

अश्वत्थामा सौमदत्ति हा तेविं असे चि विकर्ण ||११||

 

आता आमुचिया | सैन्याचे नायक | प्रख्यात सैनिक | भूमंडळीं ||१७७||

प्रसंगे तयांचें | करितों वर्णन | कळावें म्हणोन | तुम्हांलागीं ||१७८||

सांगतों त्यांतील | मुख्य पांच सात | तुम्ही आधीं ज्यांत | नामवंत ||१७९||

तेजोनिधि जणू | प्रतापाचा सूर्य | देखा भीष्माचार्य | गंगा-पुत्र ||१८०||

रिपु-मतंगजा | जो का पंचानन | शौर्यशाली कर्ण | तो हा येथें ||१८१||

एकला ह्यांतील | विश्व हि निर्मील | किंवा संहारील | मनोमात्रें ||१८२||

थोर धनुर्धर | येथें कृपाचार्य | पुरे ना हा काय | एकला चि ||१८३||

विकर्ण हा वीर | येथें अलीकडे | देखा पलीकडे | अश्वत्थामा ||१८४||

ज्याचें सदा वाटे | काळातें हि भय | तेविं समितिंजय | सौमदत्ति ||१८५||


 

अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता: |

नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा: ||९||

 

आणिक हि दुजे मजकरितां जे उदार जीवावरती

जे तळहातीं शीर घेउनी सजले धारातीर्थीं ||१२||

नाना शस्त्र-प्रहार-विद्या-पारंगत जे झाले

असे लाभले बहुत हे भले युद्ध-धुरंधर सगळे ||१३||

 

बहु आणिक हि | वीर जे सकळ | नेणे ज्यांचें बळ | विधाता हि ||१८६||

शस्त्रविद्येमाजीं | होती पारंगत | जे का मूर्तिमंत | मंत्रविद्या ||१८७||

सर्व अस्त्रें झालीं | जेथोनिया रूढ | वीर जे अजोड | जगामाजीं ||१८८||

पराक्रमी पूर्ण | अर्पवया प्राण | सिद्ध प्रतिक्षण | माझ्यासाठीं ||१८९||

पतिव्रतेचा तों | पतिपायीं भाव | तैसे मी सर्वस्व | वीरांसी ह्या ||१९०||

आपुलें जीवित | लेखिती थोकडें | जे का कार्यापुढे | आमुचिया ||१९१||

ऐसे स्वामीभक्त | नि:सीम उत्तम | युद्धकला-मर्म | जाणती जे ||१९२||

कलेसी कीर्तीसी | होती जे जीवन | जन्मला जेथून | क्षात्रधर्म ||१९३||

सर्वांगे संपूर्ण | ऐसे असंख्यात | आमुच्या सैन्यांत | वीर येथें ||१९४||


 

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् |

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ||१०||

 

अफाट अमुचें सैन्य त्यावरी अधिपत्य भीष्माचें

भीमाहातीं असे मोजकें बल हें प्रतिपक्षाचें ||१४||

 

सर्व हि क्षत्रियां- | माजीं जो वरिष्ठ | जगीं योद्धा श्रेष्ठ | भीष्माचार्य ||१९५||

तयालागीं मुख्य | सेनापति केलें | अधिकार दिले | सर्व हि ते ||१९६||

आपुल्या सामर्थ्यें | आवरोनि सेना | उभारी हा नाना | दुर्ग जैसे ||१९७||

ह्याजपुढें काय | त्रैलोक्याचा पाड | मज हें उघड | दिसे येथें ||१९८||

समुद्र तों पाहें | आधीं चि दुस्तर | वडवाग्नि भर | देई त्यासी ||१९९||

किंवा काळाग्नीतें | मिळे महा-वात | तैसा गंगा-सुत | सेनापति ||२००||

ऐशा ह्या सैन्याशीं | झुंजवेल कोणा | पांडवांची सेना | दिसे थोडी ||२०१||

आडदांड भीम | पहा सेना-नाथ | बोलोनि हें स्वस्थ | राहिला तो ||२०२||


 

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः |

भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ||११||

 

प्रवेश-मार्गीं दक्ष राहुनी आपआपुल्या स्थानीं

भीष्माचार्यां संरक्षावें अतां रणीं सर्वांनीं’ ||१५||

संजय बोले पुढें सांगतों वृत्त काय घडलें तें

कुरू-कुलाधिपा, ऐकें बापा आतां सावध-चित्तें ||१६||

सर्व सेनापती | आपुले पाहोन | पुन्हां दुर्योधन | काय बोले ||२०३||

म्हणो झुंजावया | सिद्ध व्हा सकळ | आपुलालें दळ | सज्ज करा ||२०४||

ज्यांच्यापाशी ज्या ज्या | होती अक्षौहिणी | त्या त्या येथें रणीं | विभाग्याव्या ||२०५||

वरी अधिकारी | जो जो महारथी | तेणें तयांप्रति | आवरोनि ||२०६||

रहावें सर्वांनीं | भीष्माच्या आज्ञेंत | जाणोनि तो श्रेष्ठ | सर्वांमाजीं ||२०७||

मग पुन्हां ऐसें | बोले द्रोणापासीं | संरक्षावें ह्यासी | तुम्हीं आतां ||२०८||

सर्वभावें ह्यातें | माझ्या ठायीं माना | सैन्या साचपणा | ह्याच्या योगें ||२०९||


 

तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः |

सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ||१२||

 

प्रतापशाली वृद्ध पितामह सेनापति जो तेथें

तयें स्वभावें तोषवावया दुर्योधन नृपतीतें ||१७||

उच्च रवानें वीर-वृत्तिनें सिंह-गर्जना केली

नाद-निनादें रण-भूमि तदा ती दुमदुमुनी गेली ||१८||

आणि तत्क्षणीं स्फुरण चढोनी दिव्य शंख वाजविला

तोंचि मागुतीं ध्वनी तयाचा गगन भेदुनी गेला ||१९||

 

ऐकोनि हे बोल | भीष्म संतोषला | मग तेणें केला | सिंहनाद ||२१०||

दोन्हीं दळांमाजीं | नाद तो अद्‌भुत | मावे न नभांत | प्रतिध्वनि ||२११||

त्या चि प्रतिध्वनि- | सवें वीरश्रीनें | वाजविला तेणें | दिव्य शंख ||२१२||

मिळतां ते दोन्ही | नाद तिये काळीं | बधिरता आली | त्रैलोक्यासी ||२१३||

वाटे तुटोनियां | आकाशाचा प्रांत | जणूं धडाडत | आला खालीं ||२१४||

क्षोभे चराचर | कांपावया लागे | उसळले वेगें | महा-सिंधू ||२१५||

झाला महा-घोष | तयाच्या गजरें | पर्वत-कंदरें | दणाणलीं ||२१६||


 

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः |

सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ||१३||

 

मृदंग भेरी शंख तुतारी नाना रण-वाद्यांचा

एक चि तुंबळ नाद जाहला तेथें वीर-रसाचा ||२०||

तों पार्थ-रथीं दिसे सारथी हरि गिरि-धर यदु-राणा

निज-भक्ताचें सारथ्य करी धरूनी स्व-करीं रशना ||२१||

 

तों चि रणवाद्यें | रणांत उदंड | गर्जतां प्रचंड | घोष झाला ||२१७||

महा-भयानक | कर्णकटु ध्वनि | ऐकोनि तो रणीं | एकाएकीं ||२१८||

योद्धे धीट धीट | त्यांस हि केवळ | वाटे अंतकाळ | ओढवला ||२१९||

भेरी डंके ढोल | शंख झांजा कर्णे | घोर ओरडणें | योद्ध्यांचें हि ||२२०||

थोपटिती बाहू | कोणी आवेशून | कोणी चवताळून | देती हांका ||२२१||

झाले अनावर | हत्ती मदोन्मत्त | काय सांगू मात | भेकडांची ||२२२||

होते ढिले जे का | गेले ते उडोन | कस्पटासमान | क्षणार्धांत ||२२३||

तेथें उभा राहूं | शके ना कृतांत | झाला भयभीत | महा-घोषें ||२२४||

उभेपणीं प्राण | गेले कित्येकांचे | पावले धीराचे | ते हि कंप ||२२५||

धैर्यवंतांची हि | बसे दांतखीळ | जाहला व्याकूळ | ब्रह्मा तो हि ||२२६||

देखोनि आकांत | देव हि स्वर्गांत | बोलती कल्पान्त | आला आजि ||२२७||

ऐकें राया आतां | काय झाली मात | तेथें त्या सैन्यांत | पांडवांच्या ||२२८||

 

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |

माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शख्ङौ प्रदध्मतुः ||१४||

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः |

पौण्ड्रं दध्मौ महाशख्ङं भीमकर्मा वृकोदरः ||१५||

 

‍‍अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः |

नुकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ||१६||

 

जया रथातें चपळ धांवते धवल-वर्ण साचार

सतेज सुंदर नयन-मनोहर अश्व जोडिले चार ||२२||

त्या भव्य रथीं श्रीकृष्णार्जुन-नरनारायण-जोडी

बसुनि सांकडें अखिल जगाचें लीलामात्रें फेडी ||२३||

श्रीभगवंतें पांच-जन्य तो देव-दत्त विजयानें

महा-शंख तो पौंड्र फुंकिला त्या बलाढ्य भीमानें ||२४||

अनंत-विजय ज्येष्ठ पांडवें युधिष्ठिरें आस्फुरिला

सुघोष नकुलें मणि-पुष्पक तों सहदेवें वाजविला ||२५||

 

महा-तेजाचें का | असे जें भांडार | मूर्तिमंत सार | विजयाचें ||२२९||

गरुडासारिखे | वेगवंत चार | जोडिले साचार | वारू ज्यातें ||२३०||

ऐसा रथ-श्रेष्ठ | दिसे शोभिवंत | दिव्य पंखयुक्त | मेरु जैसा ||२३१||

ज्याच्या तेजें दिशा | कोंदाटल्या दाही | स्वयें घोडे वाही | पार्थाचे जो ||२३२||

देव तो श्रीहरी | ज्या रथीं सारथी | वानूं गुण किती | रथाचे त्या ||२३३||

ध्वज-स्तंभीं  साक्षात् | शिव-अवतार | मारुती साचार | बैसलासे ||२३४||

देखा विलक्षण | कैसें भक्त-प्रेम | सारथ्याचें काम | देव करी ||२३५||

आपुला सेवक | घालोनियां पाठीं | पुढें जगजेठी | उभा राहे ||२३६||

तेणें कृष्णनाथें | लीलेनें आपुला | शंख तो फुंकिला | पांचजन्य ||२३७||

सूर्योदयीं जैसा | नक्षत्रांचा लोप | होय आपोआप | नभामाजीं ||२३८||

तैसा कौरवांच्या | दळीं सभोंवार | वाद्यांचा गजर | चालिला जो |२३९||

कळे ना तो कोठें | लोपला सत्वर | तेणें घनघोर | महा-घोषें ||२४०||

मग पार्थें तेथ | शंख देवदत्त | वाजवितां होत | महा-नाद ||२४१||

दोन्ही हि ते ध्वनी | मिळतां अद्‌भुत | ब्रह्मांड शतकूट | होऊं पाहे ||२४२||

तों चि महाकाळा- | सारिखा क्षोभून | उठे भीमसेन | आवेशानें ||२४३||

पौंड्र महा-शंख | फुंकिला तयानें | जैसा का दणाणे | काळ-मेघ ||२४४||

मग धर्मराज | वाजविता होय | अनंतविजय | शंख थोर ||२४५||

नकुळें सुघोष | तो मणि-पुष्पक | वाजविला शंख | सहदेवें ||२४६||

प्रचंड गंभीर | ऐकोनि तो ध्वनि | गेला घाबरोनि काळ तो हि ||२४७||

 

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः |

धृष्ट्द्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ||१७||

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते |

सौभद्रश्च महाबाहुः शंख्ङान्दध्मुः पृथक् पृथक् ||१८||

 

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् |

नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ||१९||

 

महा-धनुर्धर काश्य शिखंडी महा-रथी गर्जून

शंख फुंकिती जयी सात्यकी विराट धृष्टद्युम्न ||२६||

द्रौपदेय ते तसा द्रुपद तो सौभद्र हि बल-तरणी

ह्या सर्वांनीं शंख फुंकिले रणीं सर्व बाजूंनीं ||२७||

दुमदुमल्या त्या दहा दिशा ती पृथ्वी नभ संपूर्ण

त्या तुमुल-रवें कौरव-हृदयें शतधा होत विदीर्ण ||२८||

 

पांडवांच्या दळीं | भूपती अनेक | द्रौपदेयादिक | आणिक जे ||२४८||

महाबाहु काश्य | द्रुपद तो तेथ | अर्जुनाचा सुत | अभिमन्यु ||२४९||

सात्यकी अजिंक्य | शिखंडी विराट | तैसा नृपनाथ | धृष्टद्युम्न ||२५०||

ऐसे थोर वीर | सैनिक प्रमुख | त्यांनी नाना शंख | वाजविले ||२५१||

प्रचंड तो घोष | दणाणतां तेथ | बैसला आघात | एकाएकीं ||२५२||

तेणें शेष-कूर्म | दचकोनि जाती | सोडाया पहाती | भू-भारातें ||२५३||

    मेरु-मंदराचा | जाऊं पाहे झोंक | घोषें तिन्ही लोक | हादरतां ||२५४||

भिडे कैलासातें | सागराचें जळ | वेगें मही-तळ | ढळूं पाहे ||२५५||

वाटे आकाशातें | बैसोनि हिसडा | होऊं पाहे सडा | नक्षत्रांचा ||२५६||

सत्यलोकीं झाली | एक चि आरोळी | पहा गेली गेली | सृष्टि आज! ||२५७||

आतां सारे देव | झाले निराधार | उठे हाहाकार | तिन्ही लोकीं ||२५८||

असोनि दिवस | लुप्त झाला भानु | वाटे आला जणूं | प्रळयान्त ||२५९||

आदिपुरुष हि | होवोनि विस्मित | म्हणे न हो अंत | ब्रह्मांडाचा ||२६०||

म्हणोनियां विश्व | सांवरलें तेथ | लोपोनि अद्‌भुत | आवेश तो ||२६१||

एऱ्हवीं युगान्त | होता ओढवला | जेव्हां घोष केला | कृष्णादिकीं ||२६२||

महा-शंखांचा तो | ओसरला नाद | परी पडसाद | ठेला त्याचा ||२६३||

तेणें पडसादें | झाली दाणादाण | सैनिकांची जाण | कौरवांच्या ||२६४||

महा-वनीं जैसा | हत्तींचा समूह | विदारितो सिंह | लीलामात्रें ||२६५||

तैसा चि तो तेथें | गेला प्रतिध्वनि | हृदयें भेदोनि | कौरवांचीं ||२६६||

घोर प्रतिध्वनि | ऐकोनि तो कोणी | गेले उभेपणीं | गळोनियां ||२६७||

म्हणोनियां देती | एकमेकां साद | व्हा रे व्हा सावध | बोलती ते ||२६८||

 

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः | प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ||२०||

 

तदा कपि-ध्वज अर्जुन सहजें निज-धनुष्य उचलून

रणार्थ पुनरपि नीट उभे तें कौरव-जन देखून ||२९||

 

प्रतिष्ठा-संपन्न | बळी जे सुधीर | महारथी वीर | होते तेथें ||२६९||

आवरोनि त्यांनीं | सैन्य आपुलालें | पुन्हां सज्ज केलें | झुंजावया ||२७०||

उठावलें तेव्हां | दुण्या आवेशानें | क्षुब्ध झालें तेणें | लोक-त्रय ||२७१||

बाणांचा वर्षाव | करिती ते वीर | जैसे जल-धर | प्रलयान्तीं ||२७२||

देखोनियां तेथें | अखंड ती वृष्टी | तोष झाला चित्तीं | अर्जुनाच्या ||२७३||

मग जों सावेश | करी निरीक्षण | देखे कुरु-जन | आघवा चि ||२७४||

झुंजावया सिद्ध | पाहोनियां तेथें | सज्ज केले पार्थें | चाप-बाण ||२७५||

लीलेनें ते तैसे | घेवोनियां हातीं | मग कृष्णाप्रति | काय बोले ||२७६||

 

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते |

अर्जुन उवाच  –

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ||२१||

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् |

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ||२२||

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः |

धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ||२३||

 

रण-प्रसंगीं श्रीकृष्णातें म्हणे, ‘हाकवीं वाजी

करी रथ उभा अतां अच्युता, दोन्ही सैन्यामाजीं ||३०||

उभे ठाकले रणीं लढाया कोण कोण हे धीट

मी हि लढावें कुणाकुणाशीं पाहें जोंवरि नीट ||३१||

तेविं झुंजते वीर जे इथें बघुनी घेतों त्यांतें

तुष्ट कराया इच्छिति दुर्मति दुर्योधन नृपतीतें.’ ||३२||

 

म्हणे सर्वांतून | कोणाशीं झुंजावें | लागे हें पहावें | म्हणोनियां ||२७७||

दोन्हीं सैन्यामाजीं | नेवोनि त्वरित | देवा माझा रथ | उभा करीं ||२७८||

जोंवरी हे सर्व | वीर धीट धीट | क्षणभरी नीट | न्याहाळीन ||२७९||

बहु उतावीळ | दुष्ट हे कौरव | झुंजायाची हांव | बाळगिती ||२८०||

नाहीं रणीं धैर्य | नाहीं पराक्रम | आवडे संग्राम | परी ह्यांतें ||२८१||

रायालागीं ऐसा | सांगोनि वृत्तांत | संजय तो तेथ | काय बोले ||२८२||

 

संजय उवाच :-

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत |

सेनायोरूभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ||२४||

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् |

उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति ||२५||

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान् |

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ||२६||

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बंधूनवस्थितान् ||२७||

 

एकें राजा, श्रवणीं पडतां पार्थ-वच असें तेथें

नेउनि केला उभा त्वरित तो उत्तम रथ यदु-नाथें ||३३||

भीष्म द्रोणां – सकळ नृपाळां-सन्मुख उभय-चमूंत

आणि म्हणे तो, ‘पाहें पार्था, कौरव जमले येथ.’ ||३४||

तदा देखिले उभे ठाकले रणीं अर्जुनें तेथें

पितर पितामह पुत्र पौत्र गुरू तसे मातुल भ्राते ||३५||

सुहृद सासरे सखे सोयरे सकल गोत्र देखून

मनिं गजबजला तो गहिंवरला क्षणांत झाला खिन्न ||३६||

 

म्हणें राया ऐकें | ऐशा परी पार्थें | सांगतां श्रीकांतें | काय केलें ||२८३||

चालविला रथ | हांकवोनि वाजी | दोन्हीं सैन्यामाजीं | उभा केला ||२८४||

भीष्म-द्रोणादिक | जेथें आप्तजन | आणि भूप-गण | पुढें उभा ||२८५||

थांबवोनि रथ | तेथें धनुर्धर | पाहे दळभार | उत्कंठेनें ||२८६||

मग म्हणे देवा | येथें पाहें पाहें | गोत्र-गुरु ना हे | सकळ हि ||२८७||

ऐकोनि हे बोल | कृष्णदेवराय | पावोनि विस्मय | क्षणभरी ||२८८||

मनीं म्हणे येथें | पार्थ धनुर्धारी | ऐसें काय करी | कोण जाणे ! ||२८९||

परि कांहीं तरी | दिसे विलक्षण | सहजें लक्षून | भवितव्य ||२९०||

कृष्ण तो सर्वज्ञ | प्रभु हृदयस्थ | उगा राहे स्वस्थ | तिये काळीं ||२९१||

तों चि पार्थें तेथें | देखिले सकळ | गुरू बंधु मातुल | आजे काके ||२९२||

आप्त इष्ट मित्र | देखिले कुमार | सर्व परिवार | आपुला चि ||२९३||

मुलें नातू सखे | आणिक सोयरे | देखिले सासरे | स्नेहीजन ||२९४||

संरक्षिलें होतें | जयां विपत्तींत | किंवा उपकृत | केलें ज्यांसी ||२९५||

असो ऐसे सर्व | वडील धाकुले | तेथें सज्ज झाले | झुंजावया ||२९६||

दोहीं दळीं ऐसें | आपुलें चि गोत | देखोनियां तेथ | तिये वेळीं ||२९७||

पार्थाचिया मनीं | झाली गजबज | करुणा सहज | उपजली ||२९८||

तेणें अपमानें | देखा वीर-वृत्ति | गेली तयाप्रति | सोडोनियां ||२९९||

कुलीन सुरूप | सद्‌गुणी ललना | तेजें साहती ना | सवतीतें ||३००||

रंगला नूतनीं | जैसा कामीजन | जाय विसरोन | निजपत्नी ||३०१||

न पाहे योग्यता | घेतां तिचा छंद | होय मति-मंद | वेडावला ||३०२||

तपोबळें किंवा | प्राप्त होतां ऋद्धि | भ्रंशोनियां बुद्धि | तापसाची ||३०३||

मग तया जैसी | नाठवे विरक्ति | तैसी झाली स्थिति | अर्जुनाची ||३०४||

तयाचें हृदय | कारुण्यें ग्रासिलें | म्हणोनि लोपलें | पौरुष तें ||३०५||

मांत्रिकासी जैसें | झपाटितें भूत | जरी चुकी होत | मंत्रोच्चारीं ||३०६||

तैसा महामोहें | ग्रासिला तो वीर | म्हणोनियां धीर | गेला त्याचा ||३०७||

देखा चंद्रकला | स्पर्शतां क्षणांत | मणि चंद्रकांत | द्रवे जैसा ||३०८||

तैसें अतिस्नेहें | द्रवतां हृदय | खिन्न धनंजय | काय बोले ||३०९||

 

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् |

अर्जुन उवाच –

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ ||२८||

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ||२९||

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते |

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ||३०||

 

रणांत करुणा-वृत्ति अंतरीं होतां स्थानापन्न

रण स्वामिनी वीर-वृत्ति ती गेली त्वरित निघून ||३७||

अपमानास्पद असें दृश्य तें कसें बरें पाहील ?

कोण मानिनी स्व-पति लक्षितां दुजीस तें साहील ? ||३८||

निष्ठुर होतां भ्रमर हि भेदी काष्ठ कोरडें कठिण

परि गुंतुनी मृदुल कुमुदिनीमाजीं वेंची प्राण ||३९||

तेविं गुंतला स्व-जन-स्नेहीं पार्थ तो यशोधवल

अति कोमल परि कठिण तुटाया स्नेह-बंध हें नवल ! ||४०||

हृदय बावरे कारुण्य-भरें शौर्य लोपलें सारें

दीन होउनी श्रीकृष्णातें म्हणे, ‘पहा कंसारे, ||४१||

गळून गेलीं गात्रें सगळीं तोंड कोरडें होई

अंग थरथरे भरे कांपरें तनु रोमांचित पाहीं ||४२||

मुळीं न कळलें कसें निसटलें हातांतुनि गाण्डीव

स्थिर न राहवे जळे त्वचा जणुं भोंवे माझा जीव     ||४३||

 

म्हणे  ऐकें देवा | पाहिला मेळावा | दिसे हा आघवा | गोत्रवर्ग ||३१०||

कराया संग्राम  | सर्व हे उद्युक्त | परी तें उचित | नव्हे आम्हां ||३११||

काय नेणों कैसें | गेलें अवसान | माझें मज भान | नुरे आतां ||३१२||

ह्यांसवें लढावें | नको हा विचार | मन बुद्धि स्थिर | ठायीं नोहे ||३१३||

देखें देहीं कंप | जिह्वा झाली जड | तोंडासी कोरड | पडे माझ्या ||३१४||

थरारे सर्वांग | जणूं घेई पेट | विकलता येत | गात्रांलागीं ||३१५||

पाहें ढिला होतां | गाण्डीवाचा हात | ठरे ना तें तेथ | पडे खालीं ||३१६||

कळे ना तें केव्हां | गळोनियां गेलें | हृदय व्यापिलें | मोहें ऐसें ||३१७||

तें वज्राहून | विशेषें दारुण | दुर्धर कठिण | पार्थ-चित्त ||३१८||

परी तयाहून | माया दुर्निवार | देखा कैसें थोर | नवल हें ! ||३१९||

जेणें युद्धामाजीं | शंकरासी हार | आणिली साचार | तो हा वीर ||३२०||

निवात-कवच | दैत्य केले ठार | क्षणीं तो जर्जर | झाला मोहें ||३२१||

भलतैसें काष्ठ | शुष्क कठिणांग | भेदीतसे भृंग | लीलेनें चि ||३२२||

परी कोंडे जेव्हां | कोंवळ्या कळीत | गुंतोनियां तींत | पडे जैसा ||३२३||

म्हणे चिरूं कैसी | पद्माची पाकळी | तेथें देई बळी | प्राणाचा हि ||३२४||

तैसा स्नेह-बंध | अति हळुवार | म्हणोनि साचार  | तोडवे ना ||३२५||

आदिपुरुषाची | अगम्य ही माया | नये आकळाया | ब्रह्म्यातें हि ||३२६||

त्या चि मायायोगें | भुले धनंजय | रायासी संजय | सांगतसे ||३२७||

ऐकें राजा रणीं | ऐसा तो अर्जुन | देखोनि स्व-जन | सकळ हि ||३२८||

युद्धाचा आवेश | विसरला तेथ | कैसें नेणों चित्त | पाझरलें ||३२९||

मग म्हणे कृष्णा | नये राहूं येथें | ऐसें मनीं येतें | वारंवार ||३३०||

सकळ स्व-जन | मारावे हे ठार | मज हा विचार | साहवे ना ||३३१||

मन माझें फार | होतसे व्याकुळ | सुटे आतां तोल | वाचेचा हि ||३३२||


 

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव |

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ||३१||

 

दिसती देवा, कशीं केशवा, अशुभ लक्षणें जाण

युद्धीं स्व-जनां वधुनि दिसेना परिणामीं कल्याण ! ||४४||

 

कौरवांचा वध | जरी वाटे चांग | न मारूं कां सांग | धर्मादिकां ||३३३||

आम्ही आप्तजन | सर्व हि निभ्रांत | एक चि ना गोत | एकमेकां ||३३४||

म्हणोनियां देवा | जळो जळो झुंज | माने ना हें मज | काहीं केल्या ||३३५||

महा-पातकाचा | कां गा व्हावें धनी | दिसे मज हानि | सर्वस्वाची ||३३६||

ऐसें वाटे आतां | टाळिली लढाई | तरी आशा कांहीं | कल्याणाची ||३३७||


 

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च |

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन  वा ||३२||

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च |

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ||३३||

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः |

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ||३४||

 

नको चि जय तो नको राज्य तें नको सौख्य गोविंदा !

हवी कुणाला भोग-संपदा ? काय जगून मुकुंदा ? ||४५||

इच्छावे ते भोग सुखें तीं राज्य हि ज्यांप्रीत्यर्थ

सिद्ध लढाया ते चि सोडुनी प्राण आणखीं अर्थ     ||४६||

पितर पितामह पुत्र पौत्र गुरू पुढें चि दिसती युद्धीं

तेंवि मातुल श्वशुर मेहुणे आणि आप्तसंबंधी ||४७||

 

देखोनि हें मज | नको नको जय | राज्य तरी काय | कशासाठीं ||३३८||

वधोनि हे सर्व | भोगावे हे भोग | लागो तयां आग | पार्थ बोले ||३३९||

ऐशा भोगाभावीं | कैसी हि आपदा | येवो ती गोविंदा | साहवेल ||३४०||

पुढें उभे कोण | गुरू भीष्म-द्रोण | सुखे वेचूं प्राण | ह्यांच्यासाठी  ||३४१||

वधोनियां ह्यांतें | घ्यावें राज्य-सुख | स्वप्नांत हि देख | इच्छूं ना हें ||३४२||

कां गा जन्मा यावें | जगावें किमर्थ | जरी चिंतूं  घात | वडिलांचा  ||३४३||

कुळीं ह्याचिसाठीं | इच्छिती का पुत्र | कीं तयें स्व-गोत्र | निर्दाळावें ||३४४||

मनीं तरी कां हा | आणावा विचार | कां व्हावें कठोर | वज्राऐसें ||३४५||

घडे तरी घडो | ह्यांचें कांहीं हित | वागणे उचित | हें चि आम्हां ||३४६||

जें जें कांहीं आम्ही | संपादावे येथें | उपभोगावें तें | सर्वांनीं च ||३४७||

जरी ह्यांच्या काजीं | वेचलें जीवित | तरी त्यांत हित | सर्वथैव ||३४८||

दिगंतींचे राजे | जिंकोनि सकळ | तोषवावें कुळ | आपुलें जें ||३४९||

परी कर्म-गति | कैसी विपरीत | तें चि आलें येथ | झुंजावया ||३५०||

स्त्रिया मुलें सर्व | सांडोनि भांडार | शस्त्राग्रीं जिव्हार | ठेवोनियां ||३५१||

पाहें झाले सज्ज | लढावया आज | ऐसे हे गोत्रज | आमुचे चि ||३५२||

देवा तूं चि सांग | ह्यांसी कैसें मारूं | कोणावरी धरूं | शस्त्र आतां ||३५३||

आपुला आपण | करावा का घात | असे हें उचित | काय आम्हां ? ||३५४||

लढावया आले | जाणसी न कोण | देखें भीष्म-द्रोण | पलीकडे ||३५५||

आम्हांवरी ज्यांचे | थोर उपकार | कैसें करूं ठार | तयांलागीं ||३५६||

सासरे मेहुणे | आणि हे मातुल | बांधव सकल | आमुचे चि ||३५७||

पुत्र नातू आप्त | सोयरे समस्त | संबंध निकट | एकमेकां ||३५८||

करूं वध ह्यांचा | ऐसें बोले वाचा | तरी हि तयाचा | दोष लागे ||३५९||


 

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन |

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ||३५||

 

वाढ ह्यांचा न च करूं इच्छितों वधितील जरी मातें

त्रैलोक्याचें राज्य तुच्छ तें कोण गणी पृथ्वीतें ||४८||

 

ह्याहिवरी  हे तों  | हवें तें करोत | आतां चि मारोत | आम्हांलागीं ||३६०||

परी आम्हीं ह्यांचा | कदापि निःपात | न चिंतावा येथ | मनानें हि ||३६१||

त्रिलोकींचें राज्य | सर्व झालें प्राप्त | तरी अनुचित | नाचरें हें ||३६२||

मनीं कोणाच्याही | नुरेल आदर | जरी ऐसें घोर | कृत्य केलें ||३६३||

तुझें मुख कैसें | दिसेल आम्हांसी | जरी आम्हीं ह्यांसी | घात चिंतूं ||३६४||

 

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन |

पापमेवाऽऽश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ||३६||

 

वधुनि कौरवां स्व-जन-बांधवां सुख काय अम्हां येथें

श्रेय कायसें तरि पर-लोकीं जनार्दना, सांगें तें ||४९||

जरी जाहले दुःस्वभाव हे दुष्टपणाची खाण

तरी स्व-जन हे वधितां ह्यांतें पाप आमुतें जाण ||५०||

 

गोत्रजांचा घात | घडेल हातून | तरी मी ठरेन | पाप-राशि ||३६५||

महा –पुण्यें घेसी | आमुचा कैवार | तो तूं आम्हां दूर | होशील कीं ||३६६||

कुलाचा संहार | होतां चि अशेष | जडतील दोष | आम्हांलागी ||३६७||

तिये वेळीं मग | तुज देवराया | आम्ही कोणे ठायां | शोधावें गा ? ||३६८||

उपवनीं अग्नि | देखोनि प्रबळ | क्षण ना कोकिळ | राहे तेथें  ||३६९||

कर्दमें  भरलें | देखे सरोवर | तरी तें चकोर | त्यजी जेवीं ||३७०||

तया परी मातें | सोडिशील देवा | पुण्याचा ओलावा | संपतां चि ||३७१||

घालोनियां मातें | मायेची भुरळ | दूर तूं जाशील | ठकवोनि ||३७२||

 

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् |

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ||३७||

 

स्व-जन-बांधवांसवें झुंजतां होइल कुल-संहार

आणि केशवा, कुल-संहरणीं दोष असे अनिवार    ||५१||

प्रबळे अग्नी त्या उद्यानीं क्षण हि न कोकिळ राहे

तेंविं तूं अम्हां पापकृत्तमां सांडिशील लवलाहें ||५२||

महद्‌भाग्य तें म्हणुनि आमुतें असे तुझा आधार

पुण्य संपतां तूं दुरावतां सर्वत्र चि अंधार ! ||५३||

तरी श्रीहरी, सर्वतोपरी अनुचित हें आम्हांतें

स्व-जनां वधुनी इह-पर-लोकीं पाप चि पदरीं येतें ||५४||

 

नाना परी वाटे | सदोष हें कर्म | ना करीं संग्राम | ह्यांच्या संगें ||३७३||

आम्हांलागीं तुझा | होतां चि वियोग | काय उरे मग | सांगें कृष्णा ||३७४||

कौरवांचा घात | करावा भोगार्थ | घडे ना ही मात | पार्थ म्हणे ||३७५||

 

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहचेतसः |

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ||३८||

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् |

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ||३९||

 

बुद्धि नाशिली लोभें म्हणुनी नेणती चि हे कांहीं

कुल-क्षयीं तो दोष केवढा पाप हि मित्र-द्रोहीं ||५५||

कां न कळावें परंतु आम्हां देवा, हे जाणून

निवृत्त व्हावें कुल-क्षयाच्या ह्या पापापासून ||५६||

 

जरी अभिमानें  | होवोनि उन्मत्त | ठाकले युद्धार्थ  | कौरव हे ||३७६||

तरी लागे आम्हां | पहावें स्व-हित | ऐसें माझें मत | भगवंता ||३७७||

वधावे हे कैसे | आपुले आप्तेष्ट | घ्यावें कालकूट | जाणतां चि ||३७८||

अहो मार्गीं ठाके | सिंह अकस्मात | चुकवितां हित | नोहे काय ? ||३७९||

असता प्रकाश | सांडोनियां दूर | सेवितां अंधार | काय लाभ ? ||३८०||

|भडकला अग्नि | देखोनि समोर | नाहीं झालों दूर | तेथोनियां ||३८१||

तरी आपणातें | जैसा तो घेरून | टाकील जाळून | क्षणामाजीं ||३८२||

तैसे महादोष | येथें मूर्तिमंत | आदळूं पहात | अंगावरी ||३८३||

जाणोनि कां व्हावें | युद्धासी प्रवृत्त | कृष्णाप्रति पार्थ | ऐसें बोले ||३८४||

म्हणे देवा आतां | ऐकावी सर्वथा | महाभीषणता | पापाची ह्या ||३८५||

 

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः |

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ||४०||

 

कुल-संहरणीं लोप पावती ते शाश्वत कुल-धर्म

धर्म लोपतां सहजें ग्रासी सकल कुलासि अधर्म ||५७||

काष्ठावरी होतां | काष्ठाचें घर्षण | उपजे त्यांतून | अग्नि जो का ||३८६||

होतां तो प्रदीप्त | जैसे काष्ठजात | जाळोनि टाकीत | समस्त हि ||३८७||

तैसा गोत्रीं वध | होतां परस्पर | तेणें दोषें घोर | कुलक्षय ||३८८||

होतां कुलक्षय | लोपें कुलधर्म | संचरे अधर्म | कुळामाजीं ||३८९||


 

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः |

स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ||४१||

 

जेंवि तेवता दीप दवडुनी अंधारांत शिरावें

आणि चालतां सरळ मागुतीं धडपडुनी घसरावें ||५८||

तेविं माजतां अधर्म-तम तो वर्णावर्ण-विचार

मुळीं न च उरे कुळीं भ्रष्टती कुल-स्त्रिया साचार ||५९||

स्त्रियां भ्रष्टतां संकर होतो मग चारी वर्णांचा

वर्ण-संकरीं प्रवेश होतो कुळीं महा-पापांचा ||६०||

 

मग सारासार | राहे ना विचार | कळे ना साचार | योग्यायोग्य ||३९०||

कर्तव्याकर्तव्य | ओळखे ना कांहीं | ऐसी दशा होई | पापें येणें  ||३९१||

मालवोनि दीप | चालतां अंधारीं | उजू मार्ग तरी | लागे ठेंच ||३९२||

कुलक्षयीं तैसा | आद्यधर्म सरे | एकलें चि उरे | पाप मात्र ||३९३||

मग तेथें मन | राहे ना स्वाधीन | दशेंद्रियगण | स्वैर वागे ||३९४||

हीन पुरुषाशीं | घडोनि संगति | तेणें बिघडती | कुलस्त्रिया ||३९५||

ऐसे वर्णावर्ण | जातां मिसळोन | लोपती संपूर्ण | ज्ञातिधर्म ||३९६||

चव्हाट्यावरील | भक्षावया अन्न | कावळे धांवोन | येती जैसे ||३९७||

तैसीं महा-पापें | संचरती कुळीं | लोपे जिये वेळीं | कुल-धर्म ||३९८||

 

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च |

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ||४२||

 

व्याळ डंखितां नखीं विष चढे नख-शिखान्त सर्वांगीं

तेविं दोष तो कुलघ्नासवें जाळितो कुळालागीं ||६१||

आणि कुळासह कुल-घ्न सर्व हि नरकीं पडती तेव्हां

वर्ण-संकरें महा-पातकें कुळांत शिरती जेव्हां ||६२||

पिण्ड-दान तें तिळोदक तसें पितरां अर्पी कवण

श्राध्द लोपतां पितर तयांचे पावती अधःपतन ||६३||

 

तया कुलघ्नांच्या | सवें त्या कुळास | सर्वां घडे वास | नरकींच ||३९९||

वंशांतील प्रजा | पावे अधोगति | पूर्वज भ्रष्टती | स्वर्गांतील ||४००||

लोपतां तीं कर्में | नित्य नैमित्तिक | अर्पी तिळोदक | कोणा कोण ||४०१||

कोठोनि तयांसी | मग स्वर्ग-वास | सवें नरकास | ते हि जाती ||४०२||

जरी सर्पें केला | नखाग्रातें दंश | वेगें चढे विष | सर्वांगातें ||४०३||

तैसे सत्यलोका- | पासोनि सत्वर | सर्व हि पितर | भ्रष्ट होती ||४०४||

 

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः |

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ||४३||

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन |

नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ||४४||

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् |

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ||४५||

 

कुल-घ्न पापी आचरिती हें संकर-कारक कर्म

म्हणुनि लोपती जाति-धर्म ते ते शाश्वत कुलधर्म     ||६४||

ज्या कुळांत कुळ-धर्म लोपले त्या कुळांत सर्वांना

नरक-वास तो निश्चित ऐसें ऐकत आलों कृष्णा ||६५||

अहो केवढें महत्पाप हें आदरिलें ह्या समया

राज्य-सुखास्तव उद्यत झालों लोभें स्व-जन वधाया ! ||६६||

 

ऐकें देवा आतां | आणिक हि एक | भीषण पातक | घडे येथें ||४०५||

कीं ह्या कुलघ्नांची | घडतां संगति | तेणें लोकरीती | नाश पावे ||४०६||

गृहीं एकाएकीं  | उफाळला अग्नि | टाकितो जाळोनि | आणिकांसी ||४०७||

तैसा कुलघ्नांचा | जयां सहवास | तयांचा हि नाश | होय तेणें ||४०८||

नाना दोषें व्याप्त | होतां चि तें कुळ | दारूण केवळ | नरक भोगी ||४०९||

मग कल्पांतीं हि | सुटे ना त्यांतून | एवढें पतन | कुळ-क्षयीं ||४१०||

नाना परी आम्हीं | आलों हें ऐकत | उपजे ना खंत | अजूनि हि ||४११||

सांगें देवा आतां | येथें कैसें मन | करावें कठीण | वज्राऐसें ||४१२||

जयालागीं राज्य- | सुख अपेक्षावें | तें तरी स्वभावें | नाशिवंत ||४१३||

देवा जाणतां हि | ऐसे महादोष | आम्हीं कां निःशेष | त्यजावे ना ||४१४||

येथें हे सकळ | आपुले वडील | वधाया केवळ | पाहिले जे ||४१५||

हें चि काय थोडें | घडले पातक | आतां निरर्थक | जगावें कां ||४१६||

 

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः |

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ||४६||

 

त्याहुनि समरीं सशस्त्र कौरव मारितील मज तरि तें

बरें स्वभावें मी न लढावें करूनी प्रतिकारातें ||६७||

 

होवोनि निःशस्त्र | सुखें ह्यांचे बाण | करावे सहन | हें चि बरें ||४१७||

ऐशा परी मृत्यु | आला तरी चांग | परी नको संग | पापाचा ह्या ||४१८||

मग बोले पार्थ | देखोनि स्व-कुळ | राज्य तें केवळ | नरक-भोग ||४१९||


 

संजय उवाच –

एवमुक्त्वाऽर्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् |

विसृज्यं सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ||४७||

इति श्रीमद्‌भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ||१||

 

स्व-जन-वध नको राज्य-सुख नको भलें त्याहुनी मरण

जाण अच्युता, ह्यांत चि माझें दिसे परम कल्याण !’ ||६८||

असें बोलुनी तो पार्थ रणीं व्याकुळ शोकावेगें

धनुष्य आणिक बाण टाकुनी स्व-रथीं बसला मागें ||६९||

येथें भावार्थ गीतेचा प्रथमाध्याय संपला |

युद्धीं पार्थ-विषादाचा योग ह्यांत निवेदिला ||१||

 

ऐकें राया रणीं | बोलिला जें पार्थ | तें चि तुज येथ | सांगितले ||४२०||

मग तो अर्जुन | खिन्न झाला फार | आला गहिंवर | आवरे ना ||४२१||

रथांतूनि तेव्हां | उतरोनि खालीं | दुःखें  अश्रु गाळी | ढळढळां ||४२२||

जैसा राजपुत्र | होतां पदच्युत | कोणी ना ठेवित | मान त्याचा ||४२३||

नातरी राहूनें | टाकितां ग्रासून | दिसे प्रभाहीन  | भानु जैसा ||४२४||

किंवा सिद्धीलागीं | भुलोनि तापसी | कामनेच्या फांसीं | दीन होय ||४२५||

तैसा दुःखभारें | जाहला जर्जर | रणांगणीं वीर | धनंजय ||४२६||

मग धनुर्बाण | ठेवोनि परते | बैसोनियां तेथें | अश्रु ढाळी ||४२७||

ऐशा परी रणीं | घडलें जें काय | रायासी संजय | तें चि सांगे ||४२८||

खिन्न अर्जुनासी | आतां कृष्णनाथ | कैसा परमार्थ | निरूपील ||४२९||

ती च कथा पुढें | ऐका अभिनव | म्हणे ज्ञानदेव | निवृत्तीचा ||४३०||

इति श्री स्वामी स्वरूपानंदविरचित श्रीमत् अभंग-ज्ञानेश्वरी प्रथमोऽध्यायः |

हरये नमः | हरये नमः | हरये नमः |

श्रीकृष्णार्पणमस्तु |

 

 

श्री ज्ञानदेव - वंदन

 

नमितों योगी थोर विरागी तत्वज्ञानी  संत ।

तो सत्कविवर परात्पर गुरु ज्ञानदेव भगवंत ।। १ ।।

 

स्मरण तयाचें होतां साचें चित्तीं हर्ष ना मावे ।

म्हणुनि वाटते पुनःपुन्हां ते पावन चरण नेमावे ।। २ ।।

 

अनन्यभावें शरण रिघावें अहंकार सांडून ।

झणिं टाकावी तयावरूनियां काय कुरवंडून ।। ३ ।।

 

आणि पाहावें नितांत-सुंदर तेजोमय तें रूप ।

सहज साधनीं नित्य रंगुनी व्हावे मग तद्रूप ।। ४ ।।

 

ज्ञानेशाला नमितां झाला श्रीसद्गुरुला तोष ।

वरदहस्त मस्तकीं  ठेवुनी देई मज आदेश ।। ५ ।।

 

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |



 

Adhyay 2

अभंग ज्ञानेश्वरी पारायण-पाठ:

 

 

दिवस ०२

 

अध्याय०२

(सांख्ययोग)

 

संजय उवाच –

तं तथा कृपयाऽऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् |

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ||१||

 

संजय सांगे धृतराष्ट्रातें पार्थ तसा उद्वेगें

मान खालती घालुनी रथीं बसला होता मागें ||१||

भरुनी आले नयन त्यांतुनी घळघळ वाहे नीर

कारुण्यें अति दीन जाहला म्हणुनी सुटला धीर ||२||

 

मग रायालागीं | म्हणे तो संजय | पुढें झालें काय | ऐकें आतां ||१||

रणांगणीं पार्थ | ऐशापरी खिन्न | होवोनि रुदन | करूं लागे ||२||

उपजला चित्तीं | मोह विलक्षण | सर्व आप्तजन | देखोनियां ||३||

तेणें त्याचें चित्त | द्रवोनियां गेलें | जलें पाझरलें | जैसें मीठ ||४|

हृदय सधीर | परी विरमलें | वातें झळंबलें | अभ्र जैसें ||५||

किंवा राजहंस | कर्दमी रुतावा | मग तो दिसावा | म्लान-मुख ||६||

तैसा दिसे पार्थ | अति कोमेजला | कारुण्यें व्यापिला | म्हणोनियां ||७||

देखोनि तो ऐसा | महा-मोहें ग्रस्त | तयासी श्रीकांत | काय बोले ||८||

 

श्रीभगवानुवाच –

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ||२||

 

संबोधुनियां तदा तयातें मधु-सूदन यदु-राज

म्हणे, ‘अर्जुना, परंतपा, तुज काय जाहलें आज ? ||३||

युद्धाचा हा समय पहा तूं विसरलासि साचार

कुठुनी सुचला तुजला असला घातक हा अविचार ! ||४||

जो आजवरी न च आदरिला जगीं कधीं आर्यांनीं

स्वर्ग-सुखातें तेविं यशातें निश्चित आणी हानी ||५||   

 

म्हणे पार्था आधीं | करीं तूं विचार | येथें हा आचार | योग्य काय ||९||

कोण तूं गा काय | करिसी हें येथें | काय झालें तूतें | सांगें मज ||१०||

कशासाठीं खेद | तुज उणें काई | करूं जातां कांहीं | राहिलें का? ||११||

न देसी तूं चित्त | अयोग्य गोष्टीसी | धीर ना सोडिसी | कदा काळीं ||१२||

नाम तुझें मात्र | ऐकोनि साचार | होतें दिशापार | अपयश ||१३||

शौर्याचा तूं ठाव | क्षत्रियांत राव | युद्धीं तुझें नांव | तिन्हीं लोकीं ||१४||

निवात-कवच | मारिले असुर | जिंकिला शंकर | संग्रामीं तूं ||१५||

झाले तुजपुढें | गंधर्व बापुडे | पौरुष चोखडें | ऐसें तुझें ||१६||

काय सांगूं तुझ्या | प्रभावाचें मान | त्रैलोक्य हि सान | वाटतसे ||१७||

तो तूं आज येथें | सांडोनियां शौर्य | रडतोसी काय | अधोमुख ||१८||

पाहें तूं अर्जुन | तुज आकळून | करावें का दीन | करुण्यानें? ||१९||

सूर्यातें अंधार | ग्रासील का वीरा | भिईल का वारा | मेघालागीं ||२०||

किंवा अमृतासी | आहे का मरण | अग्नीतें सर्पण | गिळी काय? ||२१||

संसर्गाची बाधा | होवोनि मरेल | काय हालाहल | सांगे मज ||२२||

किंवा मिठानें का | पाणी पाझरेल | बेडूक गिळील | भुजंगासी ||२३||

सिंहाशीं जंबूक | कैसा झगडेल | ऐसें का घडेल | अघटित ||२४||

अघटितासी ह्या | परी साचपणा | आज तूं अर्जुना | आणिलासी ! ||२५||

पार्था, अजूनी हि | धरोनियां धीर | तोडीं हा सत्वर | मोह-पाश ||२६||

होईं सावधान | सांडीं मूर्खपण | ऊठ चाप-बाण | सज्ज करीं ||२७||

नको नको ऐसें | रणीं हें कारुण्य | आहेस तूं सुज्ञ | धनुर्धरा ||२८||

करोनि विचार | सांगें धनंजया | संग्रामीं ही दया | योग्य काय ||२९||

येणें इहलोकीं | तुझा दुर्लौकिक | आणि परलोक | अंतरेल ||३०||

 

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपदयते |

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ||३||

 

नको होउं तूं निवीर्य असा शोभत हें तुज नाहीं

हृदयाची ही तुच्छ ढिलाई सोड ! उठ लवलाहीं !!’ ||६||

 

तरी नको शोक | पुरा धरीं धीर | पार्थासी श्रीधर | ऐसें बोले ||३१||

आप्तांसाठीं खेद | करावा रणांत | नव्हे हें उचित | तुजलागीं ||३२||

लोपेल तें येणें | जोडलें बहुत | आतां तरी हित | विचारीं गा ||३३||

हें तों रणांगण | पार्था घेईं चित्तीं | येथें दया-वृत्ति | कामा नये ||३४||

आतां चि हे काय | सोयरे दिसावे | नव्हतें का ठावें | आधीं तुज ||३५||

काय नव्हतासी | ओळखीत ह्यांसी | वायां कां करिसी | अतिरेक ||३६||

जन्मोनियां तुज | युद्धाचा प्रसंग | आतां चि का सांग | आला येथें ||३७||

तुम्हां एकमेकां | युद्धाचें निमित्त | असे सदोदित | धनंजया ||३८||

तरी नेणों तुज | आतां काय झालें | कैसें उपजलें | कारुण्य हें ||३९||

परी पार्था हें तों | कृत्य अनुचित | ऐसें चि निश्चित | वाटे मज ||४०||

गुंततां मोहांत | ऐशापरी देख | लाभला लौकिक | दुरावेल ||४१||

इह-परलोक | दोन्ही अंतरोनि | होईल निदानीं | अकल्याण ||४२||

युद्धीं हृदयाचें | ऐसें ढिलेपण | अधःपात जाण | क्षत्रियांसी ||४३||

नाना परी ऐसें | प्रभु कृपावंत | असे शिकवीत | पार्थालागीं ||४४||

ऐकोनि हे बोल | पार्थ काय म्हणे | इतुकें बोलणें | नको देवा ||४५||

 

अर्जुन उवाच –

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन |

इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ||४||

 

वदे परं-तप ‘तूं चि सांग हे मधुसूदन, कंसारे,

युद्धास्तव ना उभे ठाकले द्रोण-भीष्म सामोरे ||७||

गुरूचें नातें सदा आमुतें पूजनीय हे जाण

ह्या संग्रामीं कसा बरें मी ह्यांवरि सोडू बाण ? ||८||

 

प्रभो, आधीं तूं चि | करीं हा विचार | असे का साचार | संग्राम हा ||४६||

नव्हे नव्हे युद्ध | हा तरी प्रमाद | आचरितां बाध | दिसे येथें ||४७||

हें तों थोरांचिया | उच्छेदाचें कृत्य | ओढवलें सत्य | आम्हांवरी ||४८||

माता-पितरांची | करावी कीं सेवा | तयां तोष द्यावा | सर्वांपरी ||४९||

परी सांगें देवा | तयांसी मागुतें | आपुल्या चि हातें | वधावें का? ||५०||

करावें वंदन | संतसज्जनांतें | पूजावें तयांतें | घडे तरी ||५१||

परी हें सांडोनि | स्व-मुखें गोविंदा | केविं त्यांची निंदा | करावी गा ||५२||

पाहें कुलगुरू | तैसे हे आमुचे | पूजनीय साचे | नित्य आम्हां ||५३||

भीष्मद्रोणांचा कीं | अत्यंत मी ऋणी | मज ही करणी | नये मना ||५४||

स्वप्नांत हि ज्यांचें | चिंतिलें ना वैर | प्रत्यक्ष ते ठार | करूं कैसे ||५५||

आजवरी आम्हीं | केला जो अभ्यास | वधोनियां ह्यांस | मिरवावा ||५६||

ऐसें सर्वांनीं च | योजिलें कां मनीं | बरवें त्याहूनि | मरण हि ||५७||

तूं चि पाहें देवा | द्रोणाचा मी चेला | तेणें शिकविला | धनुर्वेद ||५८||

त्या चि उपकारें | होवोनि आभारी | तयाच्या जिव्हारीं | घाव घालूं? ||५९||

ज्याचिया कृपेनें | व्हावी वर-प्राप्ति | त्याचा घात चित्तीं | धरावया ||६०||

प्रभो सांगें मी का | असें भस्मासुर | मज हा विचार | साहवेना ! ||६१||

 

गुरूनहत्वा हि महानुभावान्

श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके |

हत्वाऽर्थकामांस्तु गुरूनिहैव

भुञ्जीय भोगान्‍रुधिरप्रदिग्धान् ||५||

 

नको मारणें थोर गुरू-जनां नको चि नरकीं जाणे

बरें त्याहुनी उदर-भरण हें भिक्षान्नावर करणें ||९||

वधुनि गुरु-जनां रणीं तयांच्या भिजलेले रक्तानें

नको नको ते भोग भोगणें जगांत लाजिरवाणें ! ||१०||

 

पाहें सागरातें | बोलती गंभीर | तो हि वरवर | दिसे तैसा ||६२||

परी नव्हे तैसें | द्रोणाचें अंतर | प्रशांत गंभीर | असे नित्य ||६३||

पाहतां नभासी | अंत पार नाहीं | वरी तयांते हि | मोजवेल ||६४||

द्रोणाचें हृदय | परी गूढ चांग | सर्वथा अथांग | दिसे आम्हां ||६५||

काळाचिया ओघीं | वज्र हि फुटेल | अवीट विटेल | अमृत हि ||६६||

परी नित्य शांत | ह्याची मनोवृत्ति | चळे ना कल्पान्तीं | क्षोभवितां ||६७||

माउलीची माया | साच वाखाणिती | परी कृपा-मूर्ति | द्रोणाचार्य ||६८||

पार्थ म्हणे कीं हा | दयेचें माहेर | गुणांचें भांडार | सकल हि ||६९||

तेवीं चि अपार | विद्येचा सागर | ऐशा परी थोर | महात्मा हा ||७०||

वरी आम्हांलागीं | होय कृपावंत | सांगें ह्यासी घात | चिंतावा का? ||७१||

ऐसियांतें रणीं | करोनियां ठार | भोगावें अपार | राज्य-सुख ||७२||

नको नको हें तों | नये माझ्या मना | त्याहुनी जीवना | लागो आग ! ||७३||

ऐसें हें दुर्घट | ह्याहुनी  हि श्रेष्ठ | भोग झाले प्राप्त | जरी मज ||७४||

तरी ते जळोत | नको त्यांचा संग | स्वीकारावें चांग | भिक्षा-पात्र ||७५||

किंवा देश-त्याग | करोनियां जावें | आनंदें रहावें | वनांतरीं ||७६||

परी आतां केला | निर्धार अंतरीं | शस्त्र ह्यांच्यावरी | धरूं नये ||७७||

प्रभो नव्या तीक्ष्ण | धारेच्या बाणांनीं | ह्यांच्या मर्मस्थानीं | प्रहारोन ||७८||

ऐसे रक्तामाजीं | बुडाले जे भोग | ते चि घ्यावे मग | शोधोनियां ||७९||

तरी सांगें कृष्णा | माखले रक्तानें | काढोनि ते कोणें | सेवावे गा ||८०||

करिसी युद्धाचें | तूं जें समर्थन | पटे ना तें जाण | ह्या चि साठीं ||८१||

ऐसें तिये वेळीं | बोलिला अर्जुन | म्हणे अवधान | देईं देवा ||८२||

ऐकोनि तें नाहीं | देवासी मानलें | तेणें मन भ्यालें | पार्थाचें हि ||८३||

म्हणोनि तो पुन्हां | म्हणे दयाघना | कां हो चित्त द्याना | माझ्या बोला ||८४||

 

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो

यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः |

यानेव हत्वा न जिजीविषाम-

स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ||६||


न कळे आम्ही जिंकावें कीं तयांसि जिंकूं द्यावें

परिणामीं हित कशांत अमुचें कसें मला समजावें ||११||

वधुनि जयांतें जगण्याची हि इच्छा न धरूं चित्तीं

धृतराष्ट्राचे पुत्र पुढें ते उभे ठाकले असती ||१२||  

 

माझ्या मनांतील | मी तरी साचार | कथिला विचार | तुम्हांलागीं ||८५||

ह्या हि वरी आतां | असेल उचित | तरी तें समस्त | जाणां तुम्हीं ||८६||

प्राणान्तीं हि ज्यांशीं | धरावें ना वैर | ते उभे समोर | झुंजावया ||८७||

ह्यांतें वधावें कीं | अव्हेरोनि जावें | दोहोंत बरवें | नेणों आम्ही ||८८||

 

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः |

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||७||

 

दैन्य-दोष हा झांकुनि टाकी स्वाभाविक मद्‌वृत्ति

म्हणुनी अतां निज-कर्तव्याचा स्फुरे न निर्णय चित्तीं ||१३||

विनंति ह्यास्तव सांग सुनिश्चित जें श्रेयस्कर आज

शिष्य तुझा मी असें शरण तुज उपदेशामृत पाज ||१४||

 

मोहानें व्याकुळ | झालें माझें चित्त | सुचेना उचित | पाहतां हि ||८९||

दृष्टींतील तेज | लोपतें सर्वथा | नेत्रीं सारा येतां | नेत्र-रोगें ||९०||

मग समीप हि | असोनि पदार्थ | दृष्टी असमर्थ | देखावया ||९१||

तैसे माझें मन | झालें भ्रांति-ग्रस्त | आतां जें स्व-हित | तें हि नेणें ||९२||

तरी तुवां देवा | करोनि विचार | सांगावें साचार | भलें तें चि ||९३||

आमुचा तूं सखा | आमुचें सर्वस्व | गुरू बंधु देव | आमुचा तूं ||९४||

तूं चि माता पिता | तूं चि आम्हां त्राता | संकटीं रक्षिता | सर्व काळ ||९५||

करूं नेणे गुरू | शिष्याचा अव्हेर | नदीतें सागर | त्यजी केविं ||९६||

सोडोनियां जातां | अपत्यातें माय | कैसी गति होय | सांगें कृष्णा ||९७||

सर्वां परी तैसा | आम्हांसी आधार | प्रभो निरंतर | तूं चि एक ||९८||

आणि जरी माझें | मागील बोलणें | तुजलागीं माने | ऐसें नाहीं ||९९||

तरी जें उचित | धर्मशास्त्राधारें | झणीं तें मुरारे | सांगें मज ||१००||

 

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्

यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् |

अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं

राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ||८||

जरी निष्कंटक समृद्ध ऐसें राज्य भू-तलावरतीं

प्राप्त जाहलें अथवा आलें तसें इंद्र-पद हातीं ||१५||

तरी न च दिसे येथें मातें जगत्पते अवधारीं

त्वरित जें महा-मोह-जन्य हा दाहक शोक निवारी.’ ||१६||

 

सकळ हें कुळ | देखोनि ह्या वेळां | खेद उपजला | मानसीं जो ||१०१||

न जाय आणिकें | प्रभो हृषीकेशा | तुझ्या उपदेशा- | वांचोनि तो ||१०२||

पृथ्वीचें साम्राज्य | जरी हातीं आलें | किंवा प्राप्त झालें | इंद्र-पद ||१०३||

तरी न फिटेल | अंतरींचा मोह | अल्प हि संदेह | नसे येथें ||१०४||

भाजलेलें बीज | सुक्षेत्रीं पेरिलें | रुजे ना तें भलें | शिंपिलें हि ||१०५||

आयुष्यान्तीं व्यर्थ | दिव्यौषधें जेविं | एकचि वांचवी | परमामृत ||१०६||

तैसें राज्य-भोग | संपत्ति वैभव | मज सर्वथैव | अर्थहीन ||१०७||

येथें दयानिधे | तुझ्या कृपेविण | बुद्धीसी जीवन | दुजें नाहीं ||१०८||

ऐका, तो अर्जुन | ऐसें क्षणभरी | बोले भानावरी | येवोनिया ||१०९||

भ्रांति-लहरीनें | मग पुन्हां तेथें | व्यापिलें पार्थातें | पूर्ववत्‌ ||११०||

नव्हे ती लहरी | वाटतें निराळें | डंखिला तो व्याळें | महा-मोहें ||१११||

हृदय-कमळ | हें चि मर्म-स्थळ | तेविं सांजवेळ | कारुण्याची ||११२||

तेथें दंश झाला | कारुण्याच्या भरीं | म्हणोनि लहरी | ओसरे ना ||११३||

मोहरूपी काळ- | सर्पाचें तें विष | दाहक विशेष | जाणोनियां ||११४||

जयाचिया कृपा- | कटाक्षेंकरून | जाय हारपून | विष-बाधा ||११५||

घाली भक्ताचिया | हांकेसवें उडी | ऐसा तो गारुडी | ठाके तेथें ||११६||

कैसा शोलाकुल | अर्जुनाशेजारीं | सांवळा श्रीहरि | शोभतसे ||११७||

होवोनि कृपाळ | आतां तो गोपाळ | तयासी रक्षील | लीलामात्रें ||११८||

ह्या चि साठीं पार्थ | मोह-फणि-ग्रस्त | ऐसें मी यथार्थ | उल्लेखिलें ||११९||

असो, तो अर्जुन | महा-मोहें व्याप्त | मेघें आच्छादित | सूर्य जैसा ||१२०||

मग रानींवनीं | लागोनि वणवा | पर्वत पेटावा | ग्रीष्म-काळीं ||१२१||

देखोनियां पार्थ | तैसा शोकाकुळ | वोळला गोपाळ | महा-मेघ ||१२२||

शोभला सहज | भला नीलवर्ण | जो कीं जलपूर्ण | कृपामृतें ||१२३||

दिव्य दंतप्रभा | तीच सौदामिनी | गंभीर जी वाणी | गर्जना ती ||१२४||

होतां कृपावृष्टि | तेणें कैसा शांत | होईल पर्वत | पार्थरूपी ||१२५||

मग तेथें कैसा | नवा जोरदार | ज्ञानाचा अंकुर | विरूढेल ||१२६||

ती च कथा आतां | ऐकां शांतचित्तें | म्हणे श्रोतयांतें | ज्ञानदेव ||१२७||

 

संजय उवाच-

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप |

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ||९||

 

संजय सांगे असें बोलुनी पार्थ श्रीकृष्णातें

म्हणे, ‘केशवा, झुंजणार मी नाहीं नाहीं येथें !’ ||१७||

आणि मागुतीं स्तब्ध राहिला तो दोन्हीं सैन्यांत

कुरू-कुलाधिपा, ऐक जाहला पुढें काय वृत्तांत ||१८||

 

संजय तो म्हणे | ऐक राया येथ | मग पुन्हां पार्थ | काय बोले ||१२८||

पावोनियां खेद | म्हणे श्रीकृष्णातें | नका घालूं मातें | भीड आतां ||१२९||

कांहीं होवो परी | नाहीं झुंजणार | अढळ निर्धार | हा चि माझा ||१३०||

ऐसे एक वेळ | उच्चारोनि शब्द | राहिला तो स्तब्ध | मग तेथें ||१३१||

देखोनियां स्तब्ध | ऐसा धनंजय | वाटला विस्मय | कृष्णालागीं ||१३२||

 

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत |

सेनयोरूभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ||१०||

 

त्या रणांगणीं असा पाहुनी सखेद बसला पार्थ

वदे तदा जणुं हांसत हांसत हृषीकेश भगवंत ||१९||

 

आपुलिया मनीं | मग ऐसें म्हणे | काय हें अर्जुनें | आरंभिलें ||१३३||

सर्वथैव कांहीं | नेणे धनंजय | करावा उपाय | काय आतां ||१३४||

पडोनि उमज | आतां कैशा रीती | पार्थ धैर्यवृत्ति | स्वीकारील ||१३५||

पंचाक्षरी जैसें | बांधी अनुमान | पिशाच्च तें कोण | बाधे कैसें ||१३६||

नातरी असाध्य | देखोनियां व्याधि | योजी दिव्यौषधि | वैद्य जैसा ||१३७||

जी का परिणामीं | टाळोनि मरण | अमृतासमान | जीववील ||१३८||

तैसें श्रीअनंत | अंतरीं योजित | जेणें रणीं पार्थ | भ्रांति सांडी ||१३९||

मग तो चि मनीं | धरोनि उद्देश | रोषें हृषीकेश | बोलूं लागे ||१४०||

बालकातें माय | रागें बोले तरी | झांकलें अंतरीं | प्रेम जैसें ||१४१||

वरी औषधाचें | दिसे कडूपण | परी देई गुण | अमृताचा ||१४२||

तैसें वरीवरी | पाहतां कठोर | परी हितकर | परिणामीं ||१४३||

आतां सावधान | ऐका श्रोतेजन | रसाळ भाषण | गोविंदांचें ||१४४||

 

श्री भगवानुवाच –

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे |

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ||११||

 

‘हे पंडु-सुता, जरी जाणता म्हणविसि तूं आपणांतें

तोडिसी न कां अजुनी गुंतलें अज्ञानाशीं नातें ||२०||

शिकवूं जातां तूं चि सांगसी पांडित्याच्या गोष्टी

आणि राहसी सचिंत सभ्रम असा होऊनी कष्टी ||२१||

सांग अर्जुना, जन्म मृत्यु हे तूं चि निर्मिले काई ?

जणूं त्रि-भुवना दुजा तुजविना कुणी च आश्रय नाहीं ! ||२२||

भ्रमुनि मीपणें येथ कुरू-जनां घात न धरिसी चित्तीं

तरी सकल हे तूं चि विचारीं काय चिरंतन होती ? ||२३||

होय जाय ही भ्रांति मानुनी ज्ञानी न करी शोक

आणि रणांगणिं पहा तुझा हा असला हीन विवेक ! ||२४||

 

मग पार्थालागीं | देव बोले काय | अर्जुना आश्चर्य | देखिलें हें ||१४५||

कीं जें तुवां आज | युद्ध-भूमीवरी | ऐसें दीनापरी | आरंभिलें ||१४६||

म्हणविसी पार्था | सुज्ञ तूं आपणा | परी सोडिसी ना | अज्ञपण ||१४७||

शिकवावें तरी | सांगसी किरीटी | पांडित्याच्या गोष्टी | तूं चि आम्हां ||१४८||

जन्मतां जें अंध | लागावें त्या पिसें | मग धांवे जैसें | सैरावैरां ||१४९||

तैसें मज दिसे | तुझें सुज्ञपण | नेणसी आपण | कोण तूं हें ||१५०||

परी कौरवांचें | तुज दुःख मोठें | आश्चर्य हें वाटे | वारंवार ||१५१||

सांगें धनंजया | तुजमुळें काय | आलें लोक-त्रय | अस्तित्वासी ||१५२||

विश्वाची रचना | असे सनातन | काय अप्रमाण | म्हणावें तें ||१५३||

सर्वशक्तिशाली | ईश्वरापासोन | होतसे निर्माण | प्राणिमात्र ||१५४||

बोलती जें ऐसें | जगामाजीं पार्था | सर्वथा तें वृथा | मानावें कां ||१५५||

जन्म-मृत्यू हे तों | निर्मिले तूं पार्थें | म्हणावें का येथें | ऐसें आतां ||१५६||

आणि तूंचि ह्यांचा | करिशील नाश | तेव्हां चि विनाश | पावती हे? ||१५७||

होवोनि अर्जुना | अहंकारें भ्रांत | येथें ह्यांचा घात | चिंतिसी ना ||१५८||

तरी चिरंजीव | काय हे होतील | विचार सखोल | करीं ह्याचा ||१५९||

किंवा मारणारा | ह्यांसी तूं चि एक | मरता हा लोक | सकळ हि ||१६०||

ऐसी तुझ्या चित्तीं | असे जरी भ्रांत | तरी ती त्वरित | सांडीं आतां ||१६१||

जन्म-मृत्यु हा तो | निसर्ग-स्वभाव | अनादि हें सर्व | स्वयंसिद्ध ||१६२||

तरी सांगें आतां | कासया तूं खिन्न | गेलासी भुलोन | मूढपणें ||१६३||

धरूं नये तें चि | धरोनियां चित्तीं | सांगसी तूं नीति | आम्हालागीं ||१६४||

देखें सव्यसाची | मृत्यु आणि जन्म | हा तों मायाभ्रम | म्हणोनियां ||१६५||

विवेकी जे होती | घेवोनि हा बोध | करिती ना खेद | दोहींचा हि ||१६६||

 

न त्वेवाहं जातु नाऽऽसं न त्वं नेमे जनाधिपाः |

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ||१२||

 

सकल नृ-पति हे मी तूं पूर्वीं नव्हतों ऐसें नाहीं

तेविं ह्यापुढें नसूं अशा हि पडूं नको संदेहीं ||२५||

उपजे नाशे असा दिसे हा मायेस्तव आभास

नसे तत्त्वतां जन्म-मरण हें अविनाशी आत्म्यास ||२६||

जसा सागरीं संघ उठावा वायुस्तव लाटांचा

तसा स्व-रूपीं जन्म पांडवां मायेस्तव भूतांचा ||२७||

वायूचें तें स्फुरण थांबतां सपाट झालें उदक

तरी निमालें काय ? करीं हा सारासार विवेक ||२८||

 

ऐकें पार्था येथें | आम्ही तुम्ही पाहें | आणि भूपती हे | सकळ हि ||१६७||

इत्यादिक ऐसे | नित्य रहातील | किंवा मरतील | निश्चयें चि ||१६८||

सोडोनि ही भ्रांति | पाहतां निश्चितीं | दोन हि ह्या स्थिति | भासमात्र ||१६९||

उत्पत्ति-विनाश | मायेमुळें दिसे | साच आत्मा असे | अविनाश ||१७०||

अर्जुना वायूनें | हालविलें नीर | लाटेचा आकार | धरी जेव्हां ||१७१||

तेव्हां तेथें कोण | जन्मलें कोठोनि | आदि अंतीं पाणी | एकलें चि ||१७२||

मग वायूचें तें | थांबतां स्फुरण | आलें स्थिरपण | उदकासी ||१७३||

तरी तेथें काय | नष्ट झालें आतां | विचार तत्त्वतां | करीं ह्याचा ||१७४||

 

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ||१३||

 

जसें बालपण यौवन किंवा वृद्धावस्था देहीं

जीवासि तसें देहान्तर हि ज्ञाता भ्रांत न होई ||२९||

मनुज सहज निज-रूप विसरुनी होत इंद्रियाधीन

विषय-सेवनें तदा तयां तीं कवळुनि करिती दीन ||३०||

 

ऐकें धनंजया | देह तरी एक | परी ते अनेक | वयोभेद ||१७५||

देखें येथें आहे | प्रत्यक्ष प्रमाण | नको अनुमान | करावया ||१७६||

ह्या देहीं आरंभीं | दिसे बाळपण | तारुण्यीं तें जाण | नष्ट होय ||१७७||

देह हा एकैक | ऐसी दशा पावे | परी तियेसवें | नासे ना तो ||१७८||

तैसे पंडुसुता | चैतन्याच्या ठायीं | होती जाती पाहीं | नाना देह ||१७९||

नाशिवंत देह | जाईल सर्वथा | चैतन्याची सत्ता | सर्वकाळ ||१८०||

ऐसें जाणे तया | व्यामोहाचें दुःख | होत नाहीं देख | कल्पांतीं हि ||१८१||

 

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ||१४||

 

विषय अशाश्वत जाण तयांतें उद्भव आणि विनाश

शीतोष्णें सुख-दुःख देउनी आकळिती मनुजास ||३१||

म्हणुनि इंद्रियाधीन कधीं ह्या न च धनंजया, व्हावें

अलिप्त राहुनि शांतपणें त्वां सकल हि विषय सहावे ||३२||

 

देखें इन्द्रियांच्या | होवोनि आधीन | वागे तया ज्ञान | नाकळे हें ||१८२||

विषयांचे ठायीं | जडे त्याचें चित्त | म्हणोनि भ्रमांत | सांपडे तो ||१८३||

आपुले विषय | इंद्रियें सेविती | तेथें उपजती | हर्ष-शोक ||१८४||

ऐसा विषयांचा | घडतां संसर्ग | तेणें अंतरंग | भ्रमे त्याचें ||१८५||

विषयांच्या ठायीं | एक भाव नाहीं | कांहीं सुख कांहीं | दुःख दिसे ||१८६||

शब्द-विषयाची | पाहें पार्था व्याप्ति | निंदा आणि स्तुति | दोन्ही तेथें ||१८७||

कर्णद्वारें निंदा | ऐकतां स्वभावें | चित्त क्षोभ पावे | एकाएकीं ||१८८||

परी कानीं येतां | स्वभावतां स्तुति | उपजते प्रीति | अंतरांत ||१८९||

स्पर्श-विषयाचे | कोमल कठिण | ऐसे दोन्ही गुण | होती जे कां ||१९०||

त्वचेन्द्रियद्वारा | धनुर्धरा जाण | होती ते कारण | तोष-खेदां ||१९१||

एक तें सुंदर | एक तें अघोर | रूपाचे प्रकार | ऐसे दोन ||१९२||

ते चि जीवालागीं | धनंजया देख | देती सुख-दुःख | नेत्रद्वारा ||१९३||

जाणें परिमळ | तो हि गा द्विविध | सुगंध दुर्गंध | ऐशा भेदें ||१९४||

घ्राणेन्द्रियद्वारा | सुगंधें आनंद | दुर्गंधें विषाद | वाटे चित्ता ||१९५||

गोड आणि कडू | द्विविध हा रस | तैसा प्रीति-त्रास | उपजवी ||१९६||

म्हणोनि अर्जुना | विषयांचा संग | दावी अधोमार्ग | जीवालागीं ||१९७||

शीतोष्णादि द्वंद्वें | ह्या परी पावोनि | जाय तो गुंतोनि | सुखदुःखीं ||१९८||

विषयांवाचोनि | नाहीं दुजें गोड | ऐसी जन्मखोड | इंद्रियांची ||१९९||

आणि पाहूं जातां | विषय हे कैसे | जैसें का आभासे | मृगजळ ||२००||

दिसावा इंद्राचा | स्वप्नीं ऐरावत | तैसे नाशिवंत | सर्वथैव ||२०१||

म्हणोनियां ह्यांचा | नको धरूं संग | वेगें करीं त्याग | धनुर्धरा ||२०२||

 

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृततत्त्वाय कल्पते ||१५||

 

हर्ष-विषादें व्यथित न करिती पार्था, विषय जयातें

सुख- दुःखीं सम धीर पुरुष तो पावे मोक्ष पदातें ||३३||

 

देखें विषयांच्या | नव्हे जो आधीन | सुख-दुःखांतून | सुटे तो चि ||२०३||

धनंजया तया | नाहीं गर्भवास | विषयांचा पाश | तुटे ज्याचा ||२०४||

तो चि तो तत्त्वतां | नित्यरूप पार्था | सहजें सर्वथा | ओळखावा ||२०५||

 

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः |

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ||१६||

 

जें नाहीं तें असेल कुठुनी अभाव अस्तित्वाचा ?

तत्त्वज्ञानीं निर्णय केला ह्या दोहींचा साचा ||३४||

जसें वेगळें करी मिसळलें राजहंस पय-पाणी

तद्वत् विश्वीं गुप्त सार तें शोधी तत्त्व-ज्ञानी ||३५||

सुवर्ण आणिक हीण निवडिती बुद्धिमंत तावून

उपाधींतुनी तेविं काढिती संत सार शोधून ||३६||

कीं पाखडुनी भूस टाकुनी केवळ दाणा घेती

तैसे ज्ञानी माया त्यजुनी ब्रह्म-पदीं स्थिर होती ||३७||

 

आतां कांहीं एक | सांगेन तें ऐक | जें का सुज्ञ लोक | ओळखिती ||२०६||

विश्वीं सर्वगत | चैतन्य तें गुप्त | स्वीकारिती संत | तत्त्वज्ञ जे ||२०७||

मिसळलें जैसें | दूध आणि पाणी | काढी निवडोनि | राजहंस ||२०८||

किंवा अग्निमाजीं | घालोनि सुवर्ण | तज्ञ चोख हीण | निवडिती ||२०९||

बुद्धिचातुर्यानें | घुसळितां दहीं | नवनीत पाहीं | दिसे अंतीं ||२१०||

भूस आणि बीज | एकत्रित जाण | परी पाखडून | घेतां जैसें ||२११||

बीज तें राहिलें | फोल तें उडालें | ऐसें कळों आलें | स्वभावें चि ||२१२||

तैसा सारासार | करितां विचार | सहजें संसार | निरसला ||२१३||

मग तत्त्वतां तें | एकलें चि एक | उरे तत्त्व देख | ज्ञानियांसी ||२१४||

चैतन्य उपाधि | दोहोंतील सार | तयांनीं साचार | ओळखिलें |२१५||

म्हणोनि अनित्य | संसाराच्या ठायीं | तयांसी तों नाहीं | सत्यबुद्धि ||२१६||

 

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् |

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ||१७||

 

तें अविनाशी जाण जें असे अखिल जगा व्यापोनी

विनाश अव्यय तत्त्वाचा त्या करू शकेना कोणी

 

देखें सारासार | करितां विचार | भ्रांति ती साचार | असारता ||२१७||

उरें सार तें तों | स्वभावतां नित्य | त्रिवार हें सत्य | जाण पार्था ||२१८||

लोकत्रयाकार | जयाचा विस्तार | नसे त्या आकार | नाम वर्ण ||२१९||

ऐसा विलक्षण | सदा सर्वगत | जन्मक्षयातीत | असे जो का ||२२०||

धनंजया तया | आत्म्याचा निभ्रांत | केलिया हि घात | होत नाहीं ||२२१||

 

अन्तवन्त इमे देहा नित्यसोक्ताः शरीरिणः |

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ||१८||

 

अविनाशी अ-प्रमेय अ-व्यय जीवात्म्याचे देह

नाशिवंत ते, न च जीवात्मा ह्यांत नसे संदेह ||३९||

नाम-रूप हें मिथ्या पाहें न करीं शोक सु-धीरा,

उभा ठाक निःशंक संगरीं करीं शस्त्र घे वीरा ! ||४०||

 

देहमात्र सर्व | विनाशी स्वभावें | म्हणोनि झुंजावें | अर्जुना तूं ||२२२||

 

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् |

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ||१९||

 

वधितां समजे ह्यातें किंवा वध्य गणी जो कोणी

वध्य न वधितां हा ह्यास्तव ते उभयतां हि अज्ञानी ||४१||

 

धरोनियां पार्था | देह-अभिमान | देह चि मानोन  | आपणातें ||२२३||

मारिता मी तैसे | सर्व हे मरते | ऐसें भ्रांतचित्तें | बोलतोसी ||२२४||

न होती हे वध्य | साच पाहूं जातां | मारिता हि पार्था | न होसी तूं ||२२५||

 

न जायते म्रियते वा कदाचिन्

नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||२०||

 

वेदविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् |

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ||२१||

 

होउनि गेला होणार पुढें असा न ह्यातें जाण

जन्म न पावे न निमे अज हा शाश्वत नित्य पुराण ||४२||

जाण विनाशी देह जाय परि भंग नसे आत्म्यातें

शस्त्रें छाया तोडिली तरी काय रुते अंगातें ? ||४३||

अ-ज अ-क्षर अ-व्यय अविनाशी आत्म्यातें जो जाणे

मरणें किंवा कुणा मारणें कसें तिथें संभवणें ! ||४४||

 

देखावें जें स्वप्नीं | स्वप्नीं चि तें साच | जागृती येतांच | कांहीं नाहीं ||२२६||

तैसा जाणें पार्था | हा तों मायाभास | वायां गुंतलास | भ्रमामाजीं ||२२७||

जैसी शस्त्रें छाया | हाणितां अंगातें | सांगें काय रुते | धनुर्धरा ||२२८||

किंवा पूर्णकुंभ | उलंडतां जैसें | नष्ट झालें दिसे | भानु-बिंब ||२२९||

तया बिंबासवें | काय भानु नासे | स्वभावें तो असे | निजस्थानीं ||२३०||

किंवा मठीं जैसें | आकाश तें पाहें | होवोनियां राहे | मठाकार ||२३१||

भंगतां तो मठ | आकाश ना नासे | असे जैसें तैसें | मूळरूपीं ||२३२||

तैसें जरी पार्था | लोपलें शरीर | सर्वथा अमर | आत्मतत्त्व ||२३३||

आत्मतत्त्वावरी | जन्ममृत्युरूप | भ्रांतीचा आरोप | नको करूं ||२३४||

 

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय |

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा –

न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||२२||

 

मनुष्य घेतो जुनीं टाकुनी नवीन वस्त्रें दुसरीं

तशीं शरीरान्तरें स्वीकारी जीवात्मा संसारीं ||४५||

 

टाकोनियां द्यावें | वस्त्र जैसें जीर्ण | करावें धारण | मग नवें ||२३५||

तैसा देही एक | शरीर सांडोन | स्वीकारी नूतन | मग दुजें ||२३६||

 

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||२३||

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च |

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ||२४||

 

चिरिती शस्त्रें न च आत्म्यातें जाळूं न शके अग्नि

तेविं न सुकवी पवन हि ह्यातें भिजवी न च तें पाणी ||४६||

 

उपाधिरहित | विशेषत्वें शुद्ध | असे नित्यसिद्ध | अनादि हा ||२३७||

म्हणोनि घडे ना | शस्त्रें ह्याचा घात | प्रळयोदकांत | बुडे ना हा ||२३८||

अग्नि असमर्थ | जाळावया ह्यातें | तेविं हा वायूतें | शोषवेना ||२३९||

सर्वत्र हा नित्य | अचळ शाश्वत | असे सदोदित | परिपूर्ण ||२४०||

 

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते |

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ||२५||

 

न तुटे न जळे न भिजे न सुके असे सर्व-गत नित्य

तेविं स्थिर हा अचल सनातन हा अव्यक्त अचिंत्य ||४७||

हा पावे ना विकार नाना म्हणुनी बोलती एक

आत्म-रूप हें असें जाणुनी नसे उचित तुज शोक ||४८||

 

ध्यान उत्कंठित | भेटावया ह्यास | तर्काच्या दृष्टीस | दिसे ना हा ||२४१||

पाहें निरंतर | दुर्लभ हा मना | तेविं साधवे ना | साधनीं हा ||२४२||

उत्तम पुरुष | असे हा अनंत | गुणत्रयातीत | धनंजया ||२४३||

अनादि हा आत्मा | नित्य निर्विकार | तेविं निराकार | सर्वरूप ||२४४||

आकळितां ह्यातें | ऐसा सर्वात्मक | हारपेल शोक | स्वभावें चि ||२४५||

 

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् |

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ||२६||

 

किंवा आत्मा नित्य जन्मुनी निमे मानिसी ऐसें

तरी हि विजया, खेद कराया कारण कांहीं न दिसे ||४९||

 

अविनाशी ऐसा | न जाणतां ह्यासी | जरी तूं मानिसी | नाशिवंत ||२४६||

तरी तुज पार्था | करावया शोक | कारण तें देख | नसे कांहीं ||२४७||

अर्जुना उत्पत्ति | स्थिति आणि लय | चाले हा अक्षय | नित्यक्रम ||२४८||

जाह्नवीचा जैसा | प्रवाह अखंड | वाहतो उदंड | निरंतर ||२४९||

उगमीं उदक | नाहीं च खुंटलें | अंतीं तरी मिळे | सागरासी ||२५०||

आणि वाहतां तें | मध्यें निरंतर | संचलें अपार | दिसे जैसें ||२५१||

प्राणिमात्रालागीं | तीन हि ह्या स्थिति | तैशापरी होती | अखंडित ||२५२||

कदापि हें सर्व | न ये थांबवाया | कासयासी वायां | खेद आतां ||२५३||

अनादि हा ऐसा | चाले नित्यक्रम | निसर्गाचा धर्म | जाण पार्था ||२५४||

तुज मानेना हें | जरी हा पाहोन | जन्मक्षयाधीन | जीव-लोक ||२५५||

तरी नको खेद | करावया कांहीं | अटळ हे पाहीं | जन्म-मृत्यु ||२५६||

 

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ||२७||

 

दिवस उगवला जसा मावळे अस्तापाठीं उदय

रितें चि भरतें भरलें सरतें हा सृष्टीचा न्याय ! ||५०||

उपजे तें तें विनाश पावे नाश पावलें निपजे

अटळ गोष्ट ही म्हणुनी अर्जुना, तुज हा शोक न साजे ||५१||

 

जें जें जन्मा येई | तें तें लया जाई | नासलें तें घेई | पुन्हां जन्म ||२५७||

ऐसें घटिकायंत्र | फिरे अखंडित | जैसे उदयास्त | स्वभावें चि ||२५८||

तैसे जन्म-मृत्यु | जगीं अनिवार | सर्वथा साचार | धनंजया ||२५९||

कल्पान्ताच्या वेळीं | त्रैलोक्य हि नासे | अटळ हा असे | आदिअंत ||२६०||

आत्मा नाशिवंत | ऐसें तुझें मत | तरी हि उचित | नव्हे खेद ||२६१||

जाणोनि कां ऐसें | पांघरसी वेड | विषाद हा सोड | धनुर्धरा ||२६२||

येथें नानापरी | विचारितां जाण | दिसे ना कारण | खेदालागीं ||२६३||

 

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत |

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ||२८||

 

आणि भारतां, कथितों आतां तत्त्व जाणुनी घेईं

आकळे तरी तुज शोकाचें उरे न कारण कांहीं ||५२||

प्राणिमात्र तें व्यक्त होतसे अव्यक्तापासून

पुनरपि अंतीं त्या अव्यक्तीं होतें सहज विलीन ||५३||

ह्यापरी साचा भूत-सृष्टिचा  आदि अंत अव्यक्त

परि स्व-रूपीं मायेस्तव हा आकार असे दिसत ||५४||

जसे सागरीं वाऱ्यासंगे बहु तरंग खेळावे

तसे स्व-रूपीं मायेस्तव हे भूतांचे मेळावे ||५५||

जशी सुवर्णीं विविध भूषणें पाहे अपुली दृष्टी

तशी स्व-रूपीं मायेस्तव कीं ही भूतांची सृष्टी ||५६||

कीं मातींतुनि कुंभकार तो निर्मी विविध घटांतें

तशीं स्व-रूपीं मायेस्तव तीं होती नाना भूतें ||५७||   

 

जन्मापूर्वीं जीव | सर्व हे अमूर्त | मग होती व्यक्त | जन्मतां चि ||२६४||

पावतां ते नाश | न जाती निभ्रांत | अन्य स्थितीप्रत | पाहें पार्था ||२६५||

परी तयांची जी | होती पूर्वस्थिति | तेथें चि अव्यक्तीं | लीन होती ||२६६||

आतां मध्यें चि जो | आकाराचा भास | जैसें निद्रितास | दिसे स्वप्न ||२६७||

तैसा माया-योगें | भासतो आकार | अर्जुना साचार | आत्मरूपीं ||२६८||

तरंगाच्या रूपें | भासतें उदक | पवनें जें देख | हालविलें ||२६९||

सुवर्णासी जैसें | अलंकारपण | यावया कारण | परापेक्षा ||२७०||

मायेमुळें तैसी | सृष्टी आकारली | अभ्रें जैसीं आलीं | आकाशांत ||२७१||

तैसें पार्था मूळीं | नाहीं चि जें अंगें | कां गा खेद सांगें | तयासाठीं ||२७२||

म्हणोनि तूं आतां | अवीट जें एक | चैतन्य तें देख | धनंजया ||२७३||

तें चि परब्रह्म | देखावयासाठीं | उत्कटता मोठी | साधुसंतां ||२७४||

म्हणोनि तयांसी | अवघा विषय | सोडोनियां जाय | स्वभावें चि ||२७५||

तें चि परब्रह्म | भेटावें म्हणोन | विरागी ते वन | स्वीकारिती ||२७६||

दृढ तपोव्रतें | ब्रह्मचर्यादिक | आचरिती देख | मुनिश्रेष्ठ ||२७७||

 

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन –

माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः |

आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति

श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ||२९||

 

स्व-रूप सहजें ब्रह्म-रूप तें असे थोर आश्चर्य

असें पाहती निश्चल होती निजान्तरीं मुनिवर्य ||५८||

अशा चि रीती कुणी वर्णिती कुणी ऐकती येथ

परंतु ह्यातें ऐकुनी हि ते पुनरपि होती स्व-स्थ ! ||५९||

दर्शन-वचन-श्रवणसाधनें सर्व हि अपुरीं जाण

आत्मानुभवीं नुरे तत्त्वतां ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान !! ||६०||

 

एक ते अंतरीं | होवोनि निश्चळ | चैतन्य केवळ | न्याहाळितां ||२७८||

गेले विसरोन | सकळ संसार | ध्यान-योगी थोर | महात्मे जे ||२७९||

करितां चि कोणी | गुण-संकीर्तन | चित्तासी होवोन | उपरति ||२८०||

परब्रह्म-पदीं | श्रेष्ठ भक्तजन | जाहले तल्लीन | निरंतर ||२८१||

कोणी ज्ञानी ह्याचें | करोनि श्रवण | उपाधि सांडोन | शांत झाले ||२८२||

होवोनि तद्रूप | स्वानुभवें कोणी | योगी भक्त ज्ञानी | झाले सिद्ध ||२८३||

सरितांचे ओघ | जैसे का समस्त | जाती सागरांत | मिळोनियां ||२८४||

परी पार्था पाहें | न मावतां तेथें | परतले मागुते | ऐसें नाहीं ||२८५||

तद्रूप बुद्धीसी | होतां साक्षात्कार | सिद्धांसी संसार | नुरे तैसा ||२८६||

 

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत |

तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ||३०||

 

अवध्य आत्मा सर्वां देहीं पार्था, नित्य अभेद

म्हणुनि सर्वथा रणीं झुंजतां आतां न करीं खेद ||६१||

 

करूं जातां ज्याचा | होत नाहीं घात | सर्व हि देहांत | वसे जें कां ||२८७||

असे जें सर्वत्र | तेविं सर्वात्मक | चैतन्य तें एक | पाहें पार्था ||२८८||

स्वभावें तेथें चि | होय जाय जग | तरी कां गा सांग | शोक आतां ||२८९||

नेणों कैसें तुज | माने ना हें पार्था | शोक हा सर्वथा | योग्य नोहे ||२९०||

 

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि |

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ||३१||

 

आणि अर्जुना, क्षत्रिय ना तूं ? घे स्व-धर्म लक्षांत

रणांगणीं तुज धीर सोडणे नसे उचित निभ्रांत ||६२||

धर्म-युद्ध हें स्वभाव कर्म क्षत्रियांसि जें विहित

तें चि हित तयां दुजें न विजया, जगांत पर-लोकांत ||६३||

 

करोनि विचार | अजूनी हि पाहें | काय चिंतीसी हें | मनामाजीं ||२९१||

स्व-धर्माचा कैसा | पडला विसर | तरावें साचार | जेणें योगें ||२९२||

आतां कौरवांचें | वाटेल तें होवो | प्रसंग वा येवो | तुजवरी ||२९३||

काय सांगूं फार | रणांगणीं येथ | जरी का युगान्त | ओढवला ||२९४||

तरी पार्था पाहें | स्वधर्म जो आहे | तो गा त्याज्य नोहे | सर्वथैव ||२९५||

जरी हृदयासी | फुटला पाझर | नाहीं तारणार | दयावृत्ति ||२९६||

म्हणोनि हें जाण | तुज अनुचित | सर्वथैव येथ | रणांगणीं ||२९७||

पाहें पार्था जरी | जाहलें गोक्षीर | नाहीं पथ्यकर | नवज्वरीं ||२९८||

ऐसें असोनी हि | ज्वरार्त रोग्यासी | दिलें तरी त्यासी | मारक तें ||२९९||

म्हणोनि स्व-धर्म | सांडोनि वागतां | लागेल स्व-हिता | मुकावें गा ||३००||

तरी कशासाठीं | वायां व्याकुळता | पार्था, होईं आतां | सावधान ||३०१||

सेवितां कदापि | न घडे पतन | तो तूं ध्यानीं आण | निजधर्म ||३०२||

पाहें पंडु-सुता | मार्गें चि चालतां | अपाय सर्वथा | नोहे जैसा ||३०३||

किंवा प्रदीपाचा | आधार घेवोनि | चालूं जातां कोणीं | ठेंचाळे ना ||३०४||

तैसें जरी घडे | स्वधर्माचरण | सहजें संपूर्ण | सर्व काम ||३०५||

म्हणोनि संग्रामा- | वांचोनि आणिक | योग्य नाहीं देख | क्षत्रियांसी ||३०६||

परस्परांवरी | करावे प्रहार | समोरासमोर | राहोनियां ||३०७||

रणांगणीं ऐसें | लढावे सावेश | परी मनीं द्वेष | ठेवूं नये ||३०८||

असो पार्था, तुज | प्रत्यक्ष हें ठावें | काय तें बोलावें | फार आतां ||३०९||

 

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् |

सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ||३२||

 

जें यदृच्छया प्राप्त जाहलें उघडें स्वर्ग-द्वार

लाभ सुदैवें क्षत्रियांसि हा इथें नको माघार ||६४||

युद्धाचा हा नोहे | प्रसंग सामान्य | वाटे पूर्वपुण्य | फळा आलें ||३१०||

किंवा हें निधान | सर्व हि धर्माचें | प्रकटलें साचें | तुम्हांपुढें ||३११||

नव्हे हा संग्राम | स्वर्ग मूर्तिमंत | अवतरे येथ | युद्धरूपें ||३१२||

किंवा मज वाटे | नव्हे हा संग्राम | तुझा पराक्रम | उगवला ||१३||

किंवा गुण-लुब्ध | कीर्ति आली आज | वरावया तुज | उत्कंठेनें  ||३१४||

पार्था, थोर पुण्य | क्षत्रियें करावें | तरी च पावावें | ऐसें युद्ध ||३१५||

जेविं मार्गें जातां | पाय आदळावा | तों तेथें मिळावा | चिंतामणि ||३१६||

येवोनि जांभई | तोंड उघडावें | अमृत पडावें | तों चि त्यांत ||३१७||

तेविं अनायासें | जोडलें हें झुंज | धनंजया आज | तुजलागीं ||३१८||

 

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि |

ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ||३३||

 

अतां पांडवां, धर्म-युद्ध हें जरी न तूं लढशील

स्वधर्मासवें कीर्ति सांडुनी तूं पापी ठरशील ||६५||

 

अव्हेरोनि ह्यातें | लटक्याचा शोक | करितां निःशंक | हानि होय ||३१९||

नको नको हानि | करूं तुझी तूं च | जोडिलें जें साच | पूर्वजांनीं ||३२०||

नको धनंजया | घालवूं तें वायां | शस्त्र सांडोनियां | आज येथें ||३२१||

जोडल्या कीर्तीसी | येणें मुकशील | निंद्य तूं होशील | जगामाजीं ||३२२||

आणि महा-दोष | अर्जुना समस्त | येतील शोधीत | तुजलागीं ||३२३||

पार्था, पदोपदीं | पावे अपमान | नारी पतिहीन | जैशा परी ||३२४||

तैसी दशा जाण | स्वधर्मावांचोन | जीवितालागोन | प्राप्त होय ||३२५||

रणांगणीं प्रेत | पडे जें उघडें | फाडिती गिधाडें | चौ बाजूंनीं ||३२६||

तैसे महा-दोष | स्वधर्महीनास | घेरिती निःशेष | पंडु-सुता ||३२७||

 

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् |

संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ||३४||

 

अखिल जग तुझ्या दुष्कीर्तीचें अक्षय गाइल गान

संभावित जो अपकीर्ति तया मरणाहून हि मरण ! ||६६||

 

सोडोनि स्वधर्म | जरी वागशील | धनी तूं होशील | पातकाचा ||३२८||

आणि दुष्कीर्तीचा | लागेल जो डाग | फिटेल ना मग | कल्पान्तींहि ||२९||

शिवे ना दुष्कीर्ति | तोंवरी च पार्था | जगावें सर्वथा | जाणत्यानें ||३३०||

तरी सांगें आतां | युद्ध हें टाळून | रणांगणांतून | निघावें का ? ||३३१||

धरोनि करुणा | सांडोनि मत्सर | घेसील माघार | येथोनियां ||३३२||

तरी तें सर्वांसी | मानेल का सांगें | ते तुज निजांगें | वेढितील ||३३३||

चार हि बाजूंनीं | मग होतां मारा | कैसा धनुर्धरा | सुटशील ||३३४||

प्राणावरी ऐसें | येतां चि संकट | दावील का वाट | दया-वृत्ति ||३३५||

प्रसंगें त्यांतून | वांचलासी नीट | तरी तें वाईट | मृत्युहून ||३३६||

 

भयद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः |

येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ||३५||

 

ह्या समयीं जरि कारुण्य-भरें शस्त्र ठेविसी खालीं

वैरी तुजवरि दुर्वचनांची वाहतील लाखोली ||६७||

विपर्यास तव कृतिचा करुनी तुज न पळूं देतील

कठोर कौरव रणीं वेढुनी धारेवरि धरतील ||६८||

यदाकदाचित् संकटांतुनी निसटलासि तूं नीट

लाजिरवाणें जिणें तरी तें मरणाहुनि वाईट ! ||६९||

चित्तिं विचारीं रथी अतिरथी म्हणतील तुला काय

मरण-भय मनीं त्वां रणांतुनी म्हणुनी काढिला पाय ||७०||

सादर जे तुज पूर्वीं  सहजें मानित होते मान्य

ते चि मागुतीं तुज परं-तपा, लेखितील सामान्य ||७१||

 

आणिक हि पाहें | येथें झुंजायास | धरोनि आवेश | आलासी तूं ||३३७||

आणि जरी आतां | निघशील मागें | स्वीकारोनि अंगें | दयावृत्ति ||३३८||

तरी तें ह्या दुष्टां | वाटेल का सत्य | पार्था तुझें कृत्य | सांगें मज ||३३९||

 

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः |

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ||३६||

 

साधुनि संधी निंदितील तव सामर्थ्यातें वैरी

बोल बोलुनी भलते सलते सभ्य न जे उच्चारी ||७२||

निंदा-वच तें दुःसह होतां हातीं शस्त्र धरावें

त्याहुनि सांगे न च अतांच कां शूर-पणें झुंजावें ? ||७३||   

 

कैसा धनुर्धर | आम्हांसी हा भ्याला | पहा गेला गेला | पळोनियां ||३४०||

ऐशापरी वैरी | निंदितील देख | सांगें हा कलंक | भला काय ||३४१||

बहुत सायास | करोनियां लोक | वाढविती एक | निज-कीर्ति ||३४२||

कीर्ति-संवर्धन | करावया जाण | प्रसंगें स्व-प्राण | वेंचिती ते ||३४३||

जोडली ती तुज | अनायासें पूर्ण | जैसें का गगन | अद्वितीय ||३४४||

तैसी तुझी कीर्ति | अतुल अनंत | तूं चि गुणश्रेष्ठ | तिन्हीं लोकीं ||३४५||

दिगंतींचे राजे | होवोनियां भाट | वाखाणिती श्रेष्ठ | यश तुझें ||३४६||

ऐकोनि तें यश | कृतांतादि सर्व | झाले हतगर्व | घेती धाक ||३४७||

पार्था, तुझी कीर्ति | निर्मळ गहन | गंगानदी जाण | दिसे जैसी ||३४८||

थोरवी देखोनि | जगीं योद्धे भले | थिजोनियां गेले | आश्चर्यानें ||३४९||

सोडिली सर्वांनीं | जीविताची आस | अद्‌भुत पौरुष | ऐकोनियां ||३५०||

सिंहाची गर्जना | ऐकोनि युगान्त | होय मदोन्मत्त | हत्तीतें हि ||३५१||

सर्व कौरवांसी | तैसा तुझा धाक | वाटे अलौकिक | पराक्रम ||३५२||

पर्वत वज्रातें | सर्प गरुडातें | तैसे सदा तूतें | मानिती हे ||३५३||

झुंजल्यावांचून | रणांगणांतून | जाशील निघून | जरी आतां ||३५४||

तरी तो महिमा | तुझा हारपून | अंगा हीनपण | येईल गा ||३५५||

निघालासी तरी | न पळूं देतील | तुज वेढितील | रणांगणीं ||३५६||

मग फजितीस | नाहीं पारावार | प्रत्यक्ष अपार | निंदा होतां ||३५७||

तिये वेळीं त्यांचे | भेदक ते बोल | तुझ्या झोंबतील | हृदयासी ||३५८||

तरी कां शौर्यानें | न झुंजावें आतां | भोगावें जिंकितां | महीतळ ||३५९||

 

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् |

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ||३७||

 

लढतां लढतां वैरी कौरव मारितील तुज ठार

तरि स्वभावें जाण उघडलें स्वर्ग-सुखाचें द्वार ||७४||

विजयीं होतां सकळ मही-तळ तुझें चि आहे विजया,

म्हणुनि निश्चयें धनंजया, तूं होईं सिद्ध लढाया ||७५||

 

किंवा रणीं येथें | वेंचलें जीवित | तरी स्वर्ग प्राप्त | अनायासें ||३६०||

नको करूं आतां | आणिक विचार | ऊठ घे सत्वर | चाप-बाण ||३६१||

स्वधर्म हा पार्था | आचरितां पाहीं | दोष असते हि | दूर होती ||३६२||

मग पातकाची | कोठून ही भ्रांति | येथें तुझ्या चित्तीं | उपजली ||३६३||

कोणी नौकाधारें | बुडेल का सांग | ठेचाळेल चांग | मार्गें जातां ||३६४||

परी तें प्रसंगीं | तैसें हि घडेल | जरी न कळेल | जावें कैसें ||३६५||

होय विष-मिश्र | दुग्धाचें सेवन | तरी तें कारण | मृत्यूतें चि ||३६६||

तैसा फलाशेनें | सेवितां स्वधर्म | होय तेंचि कर्म | दोषयुक्त ||३६७||

म्हणोनि फलाशा | सांडोनि सर्वथा | पाप ना झुंजतां | क्षात्रधर्में ||३६८||

 

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ |

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ||३८||

 

सुखीं हर्षुनी जाउं नको तूं दुःखीं खेद न मान

करीं धनु धरीं गणुनि जयाजय लाभालाभ समान ||७६||

रणीं झुंजतां जय-संपादन अथवा येईल मरण

परि तें पार्था पुढील आतां काहीं न मनीं आण ||७७||

स्व-कर्म करितां जें स्वभावतां पावे तें तें सोस

तुज ह्या रीति झुंज झुंजता मुळीं न लागे दोष ||७८||

 

होतां सुख-प्राप्ति | न जावें हर्षून | दुःखीं तरी खिन्न | होऊं नये ||३६९||

आणि होवो लाभ | किंवा होवो हानि | सर्वथा तें मनीं | धरूं नये ||३७०||

होईल विजय | येईल वा मृत्यु | पुढील हें चिंतूं | नये आधीं ||३७१||

स्वधर्मानुसार | वागतां उचित | पावे तें निवांत | साहावें गा ||३७२||

ऐशा परी मन | ठेवितां अलिप्त | स्वभावें दुरित | घडे चि ना ||३७३||

म्हणोनि निभ्रांत | करावया युद्ध | धनंजया, सिद्ध | होईं आतां ||३७४||

 

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु |

बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ||३९||

 

देह विनाशी अज अविनाशी आत्मा नित्य अनंत

तुज सांगितला असा हा भला ज्ञान-योग-सिद्धान्त ||७९||

ऐक भारता, कथितों आतां बुद्धि-योग विवरून

तोडिशील तूं कर्म-बंधनें जेणें कर्म करून ||८०||

कर्म करावें परी न व्हावें कर्म-फलीं आसक्त

उपाधींत राहुनी असावें निरहंकार अलिप्त ||८१||

 

सांख्य-तत्त्वज्ञान | ऐसें हें संक्षिप्त | सांगितलें येथ | तुजलागीं ||३७५||

बुद्धियोगाचा तो | निश्चित सिद्धान्त | सांगतसें चित्त | देईं आतां ||३७६||

येथें बुद्धियोग | साधितां हा पार्था | बाधे ना सर्वथा | कर्म-बंध ||३७७||

शस्त्रांचा वर्षाव | करूं ये सहन | कवच लेवोन | वज्राऐसें ||३७८||

काय सांगूं मग | नुरोनियां भय | संपूर्ण विजय | लाभे जैसा ||३७९||

 

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते |

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ||४०||

 

प्रत्यवाय न च इथें  जाय न च अल्पाचरण हि वायां

शक्त असे हा संसार-भयापासुनि मुक्त कराया ||८२||

 

बुद्धीयोगें तैसें | नासे ना ऐहिक | अनायासें देख | मोक्ष-लाभ ||३८०||

आपुल्या कर्मांचा | पूर्व-अनुक्रम | चोखाळे उत्तम | येणें योगें ||३८१||

कर्मीं तरी सुखें | वर्तावें किरीटी | नसावी आसक्ति | कर्म-फळीं ||३८२|

मांत्रिकातें जैसें | झपाटी ना भूत | तैसा उपाधींत | राहे तरी ||३८३||

तया बुद्धियुक्ता | न बाधे उपाधि | प्राप्त होतां सिद्धि | नैष्कर्म्याची ||३८४||

स्पर्शती ना जेथें | पुण्य आणि पाप | असे जी निष्कंप | अति सूक्ष्म ||३८५||

सत्त्व रज तम | त्रिगुणांचा लेप | न लागे निर्लेप | ऐसी जी का ||३८६||

साम्यबुद्धि साच | अल्प चि अंतरीं | प्रकाशली जरी | पुण्य-बळें ||३८७||

तरी धनंजया | संसाराचें भय | लोपोनियां जाय | संपूर्णत्वें ||३८८||

 

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ||४१||

 

एक चि ती सद्‌बुद्धि दाखवी पथ जी ब्रह्म-पदाचा

दुर्मति धरिती विविध वासना मोह तयां विषयांचा ||८३||

 

दिसावया सान | असे दीप-ज्योति | परी बहु दीप्ति | देई जैसी ||३८९||

तैसी सद्‌बुद्धि ही | म्हणूं नये अल्प | प्रकाश अमूप | असे जिचा ||३९०||

अपेक्षिती ज्ञानी | हिज नाना परी | पार्था, चराचरीं | दुर्लभ ही ||३९१||

आणिकांसारिखा | न जोडे परीस | भाग्यें लाभे लेश | अमृताचा ||३९२||

तैसी सद्‌बुद्धीची | दुर्लभ ही वाट | पोंचवी जी थेट | परंधामा ||३९३||

गंगेलागीं जैसा | नित्य निरंतर | निर्वाणीं सागर | एकला चि ||३९४||

तैसें जिला नाहीं | दुजें प्राप्तिस्थान | ईश्वरावांचोन | जगीं कांहीं ||३९५||

ती च एक पाहें | अर्जुना सद्‌बुद्धि | अन्य ती दुर्बुद्धि | ऐसें जाण ||३९६||

दुर्बुद्धि ती जाण | विषयांची खाण | तेथें रममाण | होती मूढ ||३९७||

म्हणोनियां स्वर्ग- | नरक-संसार | तयांसी साचार | प्राप्त होय ||३९८||

ऐसे जे का मूढ | तयांलागीं पार्था | लाभे ना सर्वथा | आत्मसुख ||३९९||

 

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवद्न्त्यविपश्चितः |

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ||४२||

कामात्मनः स्वर्गपरा जन्मकर्मफ़लप्रदाम् |

क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ||४३||

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् |

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||४४||

असती कर्मठ वेदवादरत मीमांसक ते पाहीं

ध्येय परम तें स्वर्ग-सुख तयां पुरुषार्थ दुजा नाहीं ||८४||

आणि बोलती कीं विधिपूर्वक मनुजें यज्ञ करावें

जन्मजन्मुनी स्वर्लोकींचे विविध भोग इच्छावे ||८५||

मंद-मती ते सकामचित्तें भुलले स्वर्ग सुखातें

आणिक भोक्ता यज्ञ-पुरुष जो पहा विसरलें त्यातें ||८६||

वेद-विहित सत्क्रिया यथाविधि आचरिती परिपूर्ण

धरुनि मनीं परि हेतु निदानीं व्यर्थ दवडिती पुण्य ||८७||

स्वर्ग-फल-प्रतिपादक वचनीं चित्त जयांचें भुललें

आत्मसुख तयां विषयासक्तां म्हणुनि पारखें झालें ||८८||  

 

वेदांचा आधार | घेवोनि बोलती | प्रतिष्ठा वर्णिती | कर्माची च ||४००||

परी कर्म-फळीं | धरोनियां आस | पार्था, स्व-हितास | मुकती ते ||४०१||

मृत्युलोकीं येथें | घेवोनियां जन्म | यज्ञादिक कर्म | आचरावें ||४०२||

मग रम्य ऐसें | कर्माचें तें फळ | भोगावें केवळ | स्वर्ग-सुख ||४०३||

सर्व सुखांमाजीं | स्वर्गसुख श्रेष्ठ | बोलती यथेष्ट | दुर्बुद्धी ते ||४०४||

देवोनि केवळ | भोगाकडे दृष्टि | चित्तीं फलासक्ति | ठेवोनियां ||४०५||

विविध विशेष | आचरिती कर्म | यथाविधि धर्म | अनुष्ठिती ||४०६||

अनुष्ठितां धर्म | दाविती नैपुण्य | एक चि वैगुण्य | परी तेथें ||४०७||

कीं ते स्वर्ग-भोग | वांछिती मनांत | सांडोनि यथार्थ | भोक्ता जो का ||४०८||

सर्व हि यज्ञांचा | भोक्ता परमेश | विसरती त्यास | अल्पज्ञ ते ||४०९|

करोनियां जैसा | कापुराचा ढीग | द्यावी त्यासी आग | लावोनियां ||४१०||

किंवा मिष्टान्नाचें | वाढोनियां ताट | त्यांत काळकूट | कालवावें ||४११||

अमृताचा कुंभ | लाभतां सुदैवें | त्यातें उलंडावें | पदाघातें ||४१२||

तैसा संपादिला | धर्म धनंजया | घालविती वायां | सकामत्वें ||४१३|

जोडोनि सुकृत | करोनि सायास | धरावी कां आस | संसाराची ||४१४||

परी अज्ञानी ते | नेणती हें कांहीं | काय कीजे नाहीं | ज्ञानदृष्टि ||४१५||

सुगरिणीनें जैसें | रांधोनि पक्वान्न | टाकावें विकोन | द्रव्यासाठीं ||४१६||

तैसा भोगासाठीं | घालविती धर्म | नेणोनियां वर्म | कर्मांतील ||४१७||

म्हणोनि वेदांच्या | अर्थवादीं जाण | होवोनियां मग्न | राहिले जे ||४१८||

अविवेकी मूढ | तयांचिया चित्तीं | सर्वथा दुर्मति | वास करी ||४१९||

 

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||४५||

 

सत्त्व-रज-तम त्रि-गुणात्मक ते वेद अर्जुना, जाणें

त्रि-गुणातीत ब्रह्म-पदाचें न तयां दर्शन होणें -- ||८९||

म्हणुनि वर्णिती ‘नेति’ ‘नेति’ ते नित्य ब्रह्म-पदातें

त्रि-गुण सांडुनि तद्‌ब्रह्म पदीं अभेद जोडीं नातें ||९०||

पुण्य-पाप सुख-दुःख तेविं तीं शीतोष्णादि द्वन्द्वें

सोडुनि सारीं तूं अविकारी सद्रूपीं चि रहावें ||९१||

तेविं पांडवा, योग-क्षेमीं तूं निश्चिंत असावें

आणि सर्वथा निज-स्वरूपीं अखंड रंगुनि जावें ! ||९२||

 

सत्त्व रज तम | त्रिगुणांनीं व्याप्त | वेद हे निभ्रांत | जाण पार्था ||४२०||

उपनिषदादि | समस्त सात्त्विक | रजतमात्मक | इतर ते ||४२१||

विवरिलें जेथें | कर्मकांडादिक | एक स्वर्ग-सुख | सुचविती ||४२२||

म्हणोनिया सर्वथा | धनंजया जाण | होती ते कारण | सुखदुःखां ||४२३||

तरी अर्थवादीं | नको देऊं चित्त | अव्हेरीं त्वरित | त्रिगुण हे ||४२४||

मी-माझें हें पार्था | न ठेवीं अंतरीं | एकलें चि धरीं | आत्मसुख ||४२५||

 

यावानर्थ उदपाने सर्वतः स्म्प्लुतोदके |

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ||४६||

 

तुडुंबलें जग जलें जेतुलें उरे प्रयोजन कूपीं

तद्वत् वेदीं उरे तया जो रमे नित्य निज-रूपीं ||९३||

 

विधि-निषेधाचे | विविध प्रकार | वर्णिले साचार | वेदांमाजीं ||४२६||

असो जरी ऐसें | बोलिलें बहुत | तरी त्यांत हित | तें चि घ्यावें ||४२७||

अशेष हि मार्ग | पडती दृष्टीस | येतां उदयास | भानु-बिंब ||४२८||

तरी पार्था पाहें | सर्व हि मार्गांनीं | चाले काय कोणी | सांगें मज ||४२९||

जरी भू-तळीं तें | अपार उदक | घ्यावें आवश्यक | तेवढें चि ||४३०||

तैसा वेदार्थाचा | करोनि विचार | ज्ञानी इष्ट सार | तें चि घेती ||४३१||

 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ||४७||

 

न च कर्म फलीं तुझा स्व-कर्मीं असे मात्र अधिकार

फलीं न ठेवीं हेतु, न च करीं अकर्म-अंगीकार ||९४||

 

तरी ऐकें आतां | ह्यापरी पाहतां | स्वकर्म हें पार्था | योग्य तुज ||४३२||

सर्व हि गोष्टींचा | करितां विचार | ऐसें चि साचार | मना आलें ||४३३||

पार्था, नये सोडूं | निज-कर्तव्यास | नये धरूं आस | कर्म-फळीं ||४३४||

आणि कुकर्माची | न व्हावी संगती | करावी सत्कृति | हेतुविण ||४३५||

 

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय |

सिद्धयसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||४८||

 

सफल जाहलें जरी घेतलें कर्म सुदैवें हातीं

येउनि किंवा प्रत्यवाय तें पावलें न परिपूर्ति ||९५||

तरी पांडवा, मुळीं तोष वा विषाद न मनीं आण

कर्म ब्रह्मीं समर्पितां तें पूर्ण जाहलें जाण ! ||९६||

यशायशीं सम-भाव ठेवणें हें योगाचें सार

साधुनी फलीं आस न धरितां करीं कर्म साचार ||९७||

 

सोडोनि फलाशा | होवोनि योग-स्थ | देवोनियां चित्त | करीं कर्में ||४३६||

आरंभिलें कर्म | सुदैवें सिद्धीस | गेलें तरी तोष | नको फार ||४३७||

किंवा दुर्दैवें तें | नाहीं झालें सिद्ध | तरी दुःखें क्षुब्ध | होऊं नये ||४३८||

सिद्ध झालें तरी | काजा आलें पाहीं | न झालें तरी हि | भलें मानीं ||४३९||

घडे तें तें कर्म | होता ब्रह्मार्पण | स्वभावें संपूर्ण | झालें जाण ||४४०||

पाहें पूर्णापूर्ण | कैसें असो कर्म | परी मनोधर्म | सारिखा चि ||४४१||

तरी पार्था होय | ती च योगस्थिति | तिज वाखाणिती | ज्ञाते जन ||४४२||

आपुल्या चित्ताची | जी का साम्यावस्था | तें चि जाण पार्था | योगसार ||४४३||

 

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय |

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ||४९||

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ||५०||

 

कर्म-भाग अति निष्कृष्ट येथें समत्व-बुद्धि श्रेष्ठ

बुद्धि-योग हा जाण पांडवा, कर्माहूनि वरिष्ठ ||९८||

ह्यास्तव कर्में आचरितां घे बुद्धि-योग आधार

आस ठेविती कर-फलीं ते दीन हीन लाचार ||९९||

बुद्धि-युक्त ह्या जगीं सांडितों पाप-पुण्य-संबंध

म्हणुनि तूं फलासक्त न होता बुद्धि-योग हा साध ||१००||

कर्में करुनी बंध तयांचे न पावणें कीं जाण

कर्म-कुशलता हीच तत्त्वतां योग-साधनीं खूण ||१०१||  

 

मन-बुद्धीमाजीं | जेथें एकभाव | तया ऐसें नांव | बुद्धियोग ||४४४||

बुद्धियोगाची ती | पाहतां महती | दिसे गौण अति | कर्मभाग ||४४५||

परी तें चि कर्म | आचरावे साङ्ग | तरीच हा योग | प्राप्त होय ||४४६||

पाहें धनंजया | कर्तुत्वाचा मद | आणि फलास्वाद | गाळोनियां ||४४७||

उरे जें जें कर्म | ती च येथें जाण | स्वभावें संपूर्ण | योगस्थिति ||४४८||

तरी होईं स्थिर | बुद्धियोगीं थोर | करोनि अव्हेर | फलाशेचा ||४४९||

पार्था, बुद्धियोग | साधिला जयांनीं | पावले ते ज्ञानी | पैलपार ||४५०||

नाहीं तयां पुण्य | नाहीं तयां पाप | तुटे आपोआप | द्वन्द्व-बंध ||४५१||

 

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः |

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ||५१||

 

आणि जाणते बुद्धि-युक्त ते सांडुनि कर्म-फलातें

जन्म-मृत्युचे बंध तोडुनी जाती ब्रह्म-पदातें ||१०२||

 

पार्था, योगी तरी | वर्तती कर्मांत | परी अनासक्त | कर्म-फलीं ||४५२||

म्हणोनियां तयां | पाहें धनुर्धरा | नाहीं येरझारा | गर्भवास ||४५३||

मग जें शाश्वत | ब्रह्मानन्दें पूर्ण | पावती ते स्थान | योग-युक्त ||४५४||

 

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति |

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ||५२||

 

तव बुद्धि जधीं मोह-मलाचें दूर करिल आवरण

नको होइल श्रुति-श्रवण तें श्रुताचें हि संस्मरण  ! ||१०३||

हवें कशाला श्रौत-कर्म-फल तुजसी श्रवण कराया

नाना-विध ते यज्ञ-याग-विधि किंवा जाणुनि घ्याया ||१०४||

श्रुति-वचनें तीं पहा सुचविती स्वर्ग-सुखें पर-लोकीं

परंतु शाश्वत असे एक तें आत्म-सुख चि अवलोकीं ||१०५||

 

जिये वेळीं मोह | सोडोनि देशील | वैराग्य ठसेल | अंतरांत ||४५५||

तिये वेळीं तैसा | तूं हि पंडु-सुता | होशील सर्वथा | योगयुक्त ||४५६||

निर्दोष गहन | मग आत्मज्ञान | प्रकटेल जाण | धनंजया |४५७||

तुझिया मनाचे | संकल्प-विकल्प | तेणें आपोआप | थांबतील ||४५८||

ऐसी साम्यावस्था | पावतां आणिक | जाणायाचें देख | नुरे कांहीं ||४५९||

किंवा पार्था, पूर्वीं | जाणिलें जें कांहीं | तेथें नको तें हि | आठवाया ||४६०||

 

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला |

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ||५३||

 

श्रुति-वाक्य-फलीं बुद्धि भोंवली स्थिर निश्चल राहील

आत्म-सुखिं, तदा स्थित-प्रज्ञ तूं योग-युक्त होशील ||१०६||

 

इंद्रियांच्या संगें | बुद्धि जी चंचल | पुन्हां स्थिरावेल | आत्मरूपीं ||४६१||

आत्मसुखीं बुद्धि | होतां चि निश्चळ | पावसी सकळ | योग-स्थिति ||४६२||

 

अर्जुन उवाच-

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव |

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ||५४||

 

तैं पार्थ वदे, ‘हे कृपा-निधे, श्रीवैकुंठाधिपते,

ज्ञान-कथा ह्या श्रवण कराया उत्कंठित मन होतें ||१०७||

कुणा म्हणावें स्थित-प्रज्ञ तें सांगावें विवरून

बोले चाले बसे कसा तो काय तयाची खूण ? ||१०८||

अखंड भोगी सहज-समाधि कसा प्रपंचीं राहे

लक्षण बरवें सर्व हि देवें बोलावें लवलाहें’ ||१०९||

 

पार्थ म्हणे तेव्हां | कृपानिधे देवा | सर्व हा सांगावा | अभिप्राय ||४६३||

विचारावें आतां | तुज सविस्तर | ऐसें वारंवार | मनीं येतें ||४६४||

मग तो अच्युत | तयालागीं बोले | विचारीं जे भलें | वाटे तुज ||४६५||

पार्था, सांगें तुझ्या | मनींची जिज्ञासा | सुखें हवा तैसा | प्रश्न करीं ||४६६||

ऐकोनि हे बोल | पार्थ म्हणे देवा | कैसा ओळखावा | स्थितप्रज्ञ ||४६७||

स्थिरबुद्धि ऐसें | बोलती कोणास | जाणावया त्यास | काय खूण ||४६८||

भोगी ब्रह्मानंदीं | अखंड समाधि | राहोनि उपाधि- | माजीं जो का ||४६९||

कोणे रूपीं कैसा | प्रपंचीं तो राहे | देवा, सांगावें हें | सर्व कांहीं ||४७०||

तदा मूर्त ब्रह्म | षड्गुणसंपन्न | देव नारायण | काय बोले ||४७१||

 

श्रीभगवानुवाच –

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |

आत्मन्येवाऽऽत्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ||५५||

 

भक्तविनवणी अशी परिसुनी सुप्रसन्न भगवंत

म्हणे अर्जुना, ‘ऐक लक्षणें होउनि सावध-चित्त ||११०||

सोडुनि नाना मनःकामना आत्म-तुष्ट जो राहे

आत्म-द्वारा, तया बोलती स्थित-प्रज्ञ तूं पाहें ||१११||

 

म्हणे पार्था ऐक झणीं | बळी काम जो का मनीं ||३७२||

तो चि आणी अडथळा | करी स्व-सुखावेगळा ||३७३||

जीव सदा नित्य तृप्त | परी गुंते विषयांत ||३७४||

ऐसा जयाचा प्रभाव | तया ‘काम’ ऐसें नांव ||३७५||

सर्वथा तो काम जाई | आत्मतुष्ट मन राही ||३७६||

तो चि स्थितप्रज्ञ जाण | तुज सांगितली खूण ||३७७||

 

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः |

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ||५६||

 

अंगावरतीं जरि कोसळती डोंगरही दुःखाचे

असे अढळ मन सदा जयाचें नांव न उद्वेगाचें ||११२||

आणि सुखाची हाव जयाच्या नाहीं अंतःकरणीं

संग-रहित निर्भय अक्रोधी स्थित-प्रज्ञ तो मौनी ||११३||

 

नाना दुःखें झालीं प्राप्त | तरी खेद ना चित्तांत ||३७८||

आणि सुखाचिया हांवे- | माजीं गुंते ना स्वभावें ||३७९||

पार्था तयाचिया ठायीं | काम क्रोध सहजें नाहीं ||४८०||

नेणे भयातें केव्हां हि | परिपूर्णपणें राही ||४८१||

भाव बाणला अभेद | ऐसा जो का अमर्याद ||४८२||

ज्यानें सोडिली उपाधि | तो चि जाण स्थिरबुद्धि ||४८३||

 

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् |

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||५७||

 

पदार्थमात्रीं अनासक्त जो शुभाशुभीं सम-चित्त

हर्ष-विषादा न भजे सहजें स्थित-प्रज्ञ तो संत ||११४||

 

उच्च-नीच ऐसा पार्था | भेदाभेद न करितां ||४८४||

सारिखा चि सकलांस | देई पूर्णेंदु प्रकाश ||४८५||

तैसा ठेवी समभाव | सर्वां भूतीं जो सदैव ||४८६||

ऐसी अखंड समता | भूतमात्रीं सदयता ||४८७||

आणि येवो कैसी वेळ | चित्त होई ना चंचल ||४८८||

कांहीं भलें प्राप्त झालें | तरी हर्षें जो ना डोले ||४८९||

आणि पावतां वाईट | विषादे ना ज्याचें चित्त ||४९०||

ऐसा हर्ष-शोकादिक | द्वन्द्वांतून मुक्त देख ||४९१||

आत्मबोधें परिपूर्ण | तो चि प्रज्ञायुक्त जाण ||४९२||

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः |

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||५८||

 

जसा आवरी कासव अपुले अवयव ते अवधारीं

तशीं इंद्रियें विषयांतुनि घे स्थित-प्रज्ञ माघारीं ||११५||

 

जैसा हर्षला कासव | सोडी मोकळे अवयव ||४९३||

इच्छावशें आवरोन | घेई आपुले आपण ||४९४||

तैसीं सर्व इंद्रियें तीं | ज्याच्या आज्ञेंत वागती ||४९५||

ज्याचीं इंद्रियें स्वाधीन | तो चि स्थितप्रज्ञ जाण ||४९६||

 

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः |

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||५९||

 

विषय तोडिले तरि न हटतटें तुटे तयांची गोडी

आत्म-दर्शनीं ती हि जळोनी तो स्व-सुखातें जोडी ||११६||

 

पार्था आणिक हि एक | ऐक सांगेन कौतुक ||४९७||

भोग त्यजावया पाहें | सज्ज झाले जे निग्रहें ||४९८||

इंद्रियांतें आवरिती | परी गोडी न सांडिती ||४९९||

तयां साधकां घेरिती | ते चि भोग नाना रीती ||५००||

जेविं वृक्षाची पालवी | वरीवरी च खुटावी ||५०१||

आणि मुळीं द्यावें जळ | तरि कैसा तो मरेल ||५०२||

कीं तो जळाच्या आधारें | जैसा अधिक विस्तारे ||५०३||

तैसे गोडीच्या प्रभावें | भोग वाढती स्वभावें ||५०४||

बळें इंद्रियांपासोन | भोग टाकिले तोडोन ||५०५||

तोडिले ते जाती जरी | सुटे ना ती गोडी तरी ||५०६||

असे कीं हा रस जाण | इंद्रियांचा जीव प्राण ||५०७||

म्हणोनियां तयावीण | होती इंद्रियें निःप्राण ||५०८||

पार्था, साधका साचार | होतां ब्रह्म-साक्षात्कार ||५०९||

रसाचे हे नियमन | मग स्वभावें संपूर्ण ||५१०||

देहभाव ते नासती | भोग इंद्रियें विसरती ||५११||

सोऽहं-भावाचा प्रत्यय | येतां ऐसी स्थिती होय ||५१२||

 

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः |

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः||६०||

 

नर हि जाणता जरि यत्न करी मनोनिग्रहासाठीं

उच्छृंखल तीं इंद्रियें बळें लागती तयापाठीं ||११७||

क्षणांत साचें मन चि तयाचें घेती आकर्षून

ऋद्धि-सिद्धिच्या मिषें विविध ते विषय तया दावून ||११८||

गुंतुनि विषयीं साधक होई तदा इंद्रियाधीन

अभ्यासीं मन राहे ना क्षण निग्रह कर्म कठीण ! ||११९||

 

नाहीं तरी हें अर्जुना | साधनानें साधूं ये ना ||५१३||

इंद्रियांतें आवरोन | वागती जे रात्रंदिन ||५१४||

यम-नियमांचे कुंपण | तयांभोवतें घालोन ||५१५||

अभ्यासाची देखरेख | नित्य ठेविती जे देख ||५१६||

राहती जे धनंजया | मन मुठीं धरोनियां ||५१७||

तयांतें हि भोग ओढी | ऐसी इंद्रियांची प्रौढी ||५१८||

करोनियां कासावीस | छळिती तीं साधकास ||५१९||

जैसी मंत्रिकातें जाण | भूल घालिते डाकीण ||५२०||

ऋद्धि-सिद्धीच्या निमित्तें | प्राप्त होती भोग त्यातें ||५२१||

मग इंद्रियांच्या द्वारा | सुरू होय त्यांचा मारा ||५२२||

लाचावलें मन तेथें | तरी अधिकाधिक गुंते ||५२३||

मग पार्था काय सांगूं | अभ्यासीं तें होय पंगु ||५२४||

ऐसें इंद्रियांचें बळ | करी चित्तातें चंचल ||५२५||

 

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः |

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||६१||

 

आवरुनी तीं सर्व मागुतीं मन स्व-रूपीं घाली

जया इंद्रियें सु-वश तयाची प्रज्ञा सु-स्थिर झाली ||१२०||

विषय विसरुनी रत चैतन्यीं संतत अंतःकरण

म्हणुनी पार्था, तोचि सर्वथा योग-युक्त तूं जाण ||१२१||

 

अनासक्ति बळें पार्था | ह्यांसी निर्दळी सर्वथा ||५२६||

भोग-सुखें होतां प्राप्त | चित्त होई ना मोहित ||५२७||

मज एकातें अंतरीं | विसंबे ना क्षणभरी ||५२८||

आत्मबोधें परिपूर्ण | तोचि स्थितप्रज्ञ जाण ||५२९||

वरिवरि जरी | सोडिले विषय | परि गोडी होय | अंतरांत ||५३०||

तरी साधकासी | साद्यन्त संसार | चुके ना साचार | धनंजया ||५३१||

अंशमात्र विष | तें हि होतें फार | कराया संहार | जीविताचा ||५३२||

येथें नाहीं पार्था | सर्वथा संशय | तैसा चि विषय | लेशमात्र ||५३३||

राहे जरी देखें | साधकाचें मनीं | तरी पूर्ण हानि | विवेकाची ||५३४||

 

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते |

सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ||६२||

क्रोधाद्‌भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः |

स्मृतिभ्रंशाद्‌बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||६३||

 

अल्प हि चिंतन अंतःकरणीं होय जरी विषयांचें

घात विवेका तरी साधका अधःपतन तें साचें ||१२२||

विषय चिंतितां उपजे चित्ता तद्विषयीं आसक्ति

आसक्तींतुनि सहजें प्रकटे अभिलाषाची मूर्ति ||१२३||

अभिलाषीं त्या क्रोध राहिला कीं आधीं चि लपून

भोगीं येता प्रत्यवाय मग तो प्रकटे संपूर्ण ||१२४||

आणि पांडवा, क्रोधीं जागे सदैव तो अविवेक

म्हणुनी अर्जुना, तदा सुचेना कार्याकार्य-विवेक ||१२५||

त्या अविवेकीं जन्म घेतसे स्मृति-भ्रंश-निभ्रांत

स्मृति भ्रंशतां बुद्धि-विनाशें सर्वस्वाचा घात ! ||१२६||

 

विषयांचें जरी | अंतरीं स्मरण | विरक्त हि जाण | लिप्त होय ||५३५||

होतां अंतरांत | आसक्तीचा जन्म | प्रकटतो काम | मूर्तिमंत ||५३६||

प्रकटतां काम | दिलें क्रोधें ठाण | आधीं चि गा जाण | तेथें पार्था ||५३७||

जेथें क्रोध तेथें | आला अविचार | स्वभावें साचार | धनंजया ||५३८||

चण्डवातें जैसी | विझे दीप-ज्योति | तैसी लोपे स्मृति | अविचारें ||५३९||

किंवा अस्तमानीं | रवि-प्रकाशातें | सर्वस्वीं ग्रासिते | रात्र जैसी ||५४०||

देखें साधकाची | तैसी होय स्थिति | सर्वथा ती स्मृति | लोपतां चि ||५४१||

मग अज्ञानांध | होवोनि केवळ | देखे तो सकळ | तमोव्याप्त ||५४२||

तेणें तयाचिया | बुद्धीलागीं पार्था | येई व्याकुळता | अंतरांत ||५४३||

देखें जन्मांधासी | पळावें लागावें | मग तें जैसें धावे | सैरावैरा ||५४४||

तैसें स्मृति-भ्रंशें | बुद्धीचें भ्रमण | चाले रात्रंदिन | धनुर्धरा ||५४५||

होतां सर्वथैव | बुद्धीचा गोंधळ | नासतें समूळ | ज्ञानजात ||५४६||

बुद्धि-नाशें होय | त्याची स्थिति तैसी | प्राण जातां जैसी | शरीराची ||५४७||

जैसा इंधनातें | लागोनि स्फुल्लिंग | भडकतां आग | विश्वा पुरे ||५४८||

तैसें विषयांचें | अल्प हि चिंतन | एवढें पतन | पाववितें ||५४९||

 

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् |

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ||६४||

 

सुटुनी प्रीति-द्वेष इंद्रियें स्वाधीन जधीं होत

आत्म-निष्ठ तो प्रसाद साधी वावरुनी विषयांत ||१२७||

विश्वीं जडलें सर्वत्र तया आत्मत्वाचें नातें

उरले कुठुनी विषय कवण ते बाधतील कवणातें ? ||१२८||

बुडेल पाणी जळीं ? विस्तवें जळेल केवीं आगी ?

स्वयें चि होतो विश्वात्मक तो पार्था, विषय-विरागी ||१२९||

 

म्हणोनियां सर्व | विषय हे पार्था | सोडावे सर्वथा | मनानें चि ||५५०||

सोडितां विषय | स्वभावें निःशेष | मग प्रीतिद्वेष | दूर होती ||५५१||

आणिक हि पार्था एक | तुज सांगतसें ऐक ||५५२||

मग इंद्रियें दहा हि | सर्व विषयांचे ठायीं ||५५३||

जरी झालीं रममाण | तरी अलिप्त तो पूर्ण ||५५४||

जेथें प्रीति-द्वेष नाहीं | तेथें बाधक तें काई? ||५५५||

सूर्य जैसा आकाशांत | असे राहिला अलिप्त ||५५६||

निज-किरणांच्या हातें | स्पर्शे सर्व हि जगातें ||५५७||

तरी त्यासी काय लागे | संग-दोष मज सांगें ||५५८||

तैसा जो का मनांतून | इंद्रियार्थीं उदासीन ||५९||

आत्मरसें परिपूर्ण | असे काम-क्रोध-हीन ||५६०||

विषयीं हि त्यासी कांहीं | आत्मरूपाविण नाहीं ||५६१||

मग विषय ते काई | कोणा बाधतील पाहीं ! ||५६२||

जरी जळीं बुडे जळ | ज्वाळेमाजीं जळे ज्वाळ ||५६३||

तरी संग-दोषें लिप्त | होय पूर्ण योग-युक्त ||५६४||

स्वयें सर्वरूप आहे | सर्व आत्मरूप पाहे ||५६५||

जाण अर्जुना निभ्रांत | तो चि स्थितप्रज्ञ संत ||५६६||

 

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते |

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ||६५||

 

‘प्रसाद’ अथवा अखंड सहज प्रसन्नता चित्ताची

तया लाभतां नुरे चि पार्था, वार्ता भव-दुःखाची ||१३०||

निर्वातींचा दीप सर्वथा नेणे जैसा कंप

तद्‌बुद्धीतें स्थिरता येते तैसी आपोआप ! ||१३१||

 

चित्त ज्याचें सर्वकाळ | राहे प्रसन्न निर्मळ ||५६७||

कैसीं स्पर्शतील तया | भव-दुःखें धनंजया ||५६८||

दिव्य अमृताची झरी | वाहे जयाचे अंतरीं ||५६९||

तया शिवे ना कल्पान्तीं | भूकतहानेची भीति ||५७०||

तैसें प्रसन्न हृदय | तरी दुःख कोठें काय ||५७१||

मग आपोआप पाहें | बुद्धि आत्मरूपीं राहे ||५७२||

जैसा निर्वातींचा दीप | कदा काळीं नेणे कंप ||५७३||

तैसा स्व-रूपीं निवांत | स्थितप्रज्ञ योग-युक्त ||५७४||

 

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना |

न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ||६६||

 

चित्त जयाचें अप्रसन्न जो योग-युक्त ना पार्था,

जाण सर्वथा असे तयाच्या बुद्धीतें अस्थिरता ||१३२||

आणि भावना आत्म-निष्ठ ना मुळीं जयाची झाली

‘सोऽहं’ ‘सोऽहं’ अशीं अक्षरें कधीं न कानीं आलीं ||१३३||

तया अभाविक नरा शांतिचा झरा चि न पडे दृष्टी

मुळीं न नजरानजर सुखाची म्हणुनि होतसे कष्टी ||१३४||

 

बुद्धियोगाचा विचार | नाहीं अंतरीं साचार ||५७५||

तो चि गुंते भोग-पाशीं | श्वेतवाहना सर्वांशीं ||५७६||

तया बुद्धीची स्थिरता | नसे कधीं हि सर्वथा ||५७७||

चित्त रहावें निर्मळ | ऐसी नाही तळमळ ||५७८||

निश्चळत्वाची भावना | जरी मनातें शिवे ना ||५७९||

तरी अर्जुना तयासी |  शांति लाभेल ती कैसी ||५८०||

आणि शांतीचा ओलावा | जया नरा नाहीं ठावा ||५८१||

तेथें सुख चुकोनि हि | प्रवेशे ना पार्था पाहीं ||५८२||

जैसा पातक्याच्या ठायीं | मोक्ष राहेना केव्हां हि ||५८३||

अग्निमाझारीं भाजलें | बीज जरी उगवलें ||५८४||

तरी असोनि अशांति | घडूं शके सुख-प्राप्ति ||५८५||

म्हणोनियां ऐक पार्था | मनाची जी चंचलता ||५८६||

ते चिं सर्वस्व दुःखाचें | ऐसें जाणोनियां साचें ||५८७||

इंद्रियांतें आवरिलें | तरी सर्वथा तें भलें ||५८८||

 

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते |

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ||६७||

 

आणि सेवितां आपआपुले विषय इंद्रियें पाहीं

तयां इंद्रियांपाठिं हांवरें धांवत जें मन जाई ||१३५||

बुडवी वारा नाव सागरीं तद्वत् जणुं तें ऐक

तद्‌बुद्धीतें हरी, करी जी आत्मानात्म-विवेक ||१३६||

 

जें जें सांगती इंद्रियें | तें तें करिती जे स्वयें ||५८९||

तरले ते ऐसें वाटे | तरी सर्वथा तें खोटें ||५९०||

पार्था, भोगसिंधु पार | नाहीं झाले ते साचार ||५९१||

तीर नावेनें गाठावें | तों चि वादळ सुटावें ||५९२||

मग चुकला अपाय | तो चि पुनरपि होय |||५९३||

तैसा असो ज्ञाता भला | जरी भोगाधीन झाला ||५९४||

जें जें आवडे इंद्रियां | तें तें तयां देवोनियां ||५९५||

कौतुकानें केले लाड | परी पुढें अवघड ||५९६||

साधनांत झाली चुकी | बुडाला तो भव-दुःखीं ||५९७||

 

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः |

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||६८||

 

म्हणुनि इंद्रियें विषयांपासुनि जयें संपूर्ण आवरिलीं

जाण अर्जुना, असे तयाची प्रज्ञा सुस्थिर झाली ||१३७||

 

जरी स्वभावतां जाण | होती इंद्रियें स्वाधीन ||५९८||

मग अर्जुना सार्थक | असे काय तें आणिक ||५९९||

जैसा हर्षला कासव | सोडी मोकळे अवयव ||६००||

इच्छावशें आवरोन | घेई आपुले आपण ||६०१||

तैसीं सर्व इंद्रियें तीं | ज्याच्या आज्ञेंत वागती ||६०२||

ज्याचीं इंद्रियें स्वाधीन | तो चि स्थितप्रज्ञ जाण ||६०३||

आतां आणिक हि एक | पार्था, सांगेन तें ऐक ||६०४||

पूर्ण-पुरुषाचें लक्षण | असे जें का अति गहन ||६०५||

 

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी |

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ||६९||

 

प्राणि-मात्र निद्रिस्त ब्रह्मीं तिथें संयमी जागे

विषयीं जागृत अन्य जन तिथें ज्ञानी मुनि निद्रा घे ||१३८||

 

लागलीसे झोंप जगा | असे तेथें चि जो जागा ||६०६||

जीवमात्र जेथें जागे | तेथें ज्यासी झोंप लागे ||६०७||

तो चि नित्य निरंतर | जाण पार्था मुनीश्वर ||६०८||

ऐसा जो का निरुपाधि | अर्जुना तो स्थिरबुद्धि ||६०९||

 

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं

समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् |

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे

स शान्तिमाप्नोति न कामकामी |७०||

 

समृद्ध सरिता-ओघ सागरीं सर्व हि मिळती जाण

तरी सर्वथा सागर न करी मर्यादातिक्रमण ||१३९||

तेविं अर्जुना, सकल कामना घेती जेथ विराम

पूर्ण-काम तो शांति भोगितो नच जो पुरुष सकाम ||१४०||

 

आणिक हि एके परी | जाणों येईल अवधारीं ||६१०||

जैसा सागर प्रशांत | असे पार्था अखंडित ||६११||

ओघ नद्यांचे समस्त | पूर्ण मिसळले त्यांत ||६१२||

तरी अल्प हि न वाढे | सोडि सीमा हें न घडे ||६१३||

किंवा येतां ग्रीष्मकाळ | नद्या आटल्या सकळ ||६१४||

परी सागराचे जळीं | नाहीं उणीव भासली ||६१५||

तैसी ऋद्धिसिद्धि येतां | बुद्धीलागीं अक्षोभता ||६१६||

आणि न हो त्यांची प्राप्ति | तरी न चळे धीरवृत्ति ||६१७||

सांगें सूर्यासी पांडवा | हवा दाखवाया दिवा ||६१८||

दिवा मालविला तरी | का तो कोंडेल अंधारीं ? ||६१९||

ऋद्धिसिद्धि तैशा परी | आली किंवा गेली तरी ||६२०||

नसे तयासी आठव | ऐसा बाणला स्वभाव ||६२१||

कीं तो निजान्तरीं पूर्ण | महासुखीं झाला मग्न ||६२२||

रम्य स्व-गृहा पाहोन | तुच्छ ज्यासी इंद्र-भुवन ||६२३||

त्यासी भिल्लाची झोंपडी | सांग पार्था कैसी ओढी ||६२४||

अमृतासी नांवें ठेवी | तो न जैसा कांजी सेवी ||६२५||

तैसा स्वानुभवी योगी | ऋद्धि-सिद्धीतें न भोगी ||६२६||

पार्था, नवल हें देख | तुच्छ जेथें स्वर्ग-सुख ||६२७||

तेथें ऋद्धि-सिद्धि गौण | मग पुसे त्यांसी कोण ||६२८||

 

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः |

निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ||७१||

 

निष्कामत्वें जगीं वावरे जो निःस्पृह निरुपाधि

निरहंकारी निर्मम नर तो परम शांति संपादी ||१४१||

 

ऐसा आत्मज्ञानें तुष्ट | ब्रह्मानन्दें परिपुष्ट ||६२९||

तो चि स्थितप्रज्ञ भला | जाण अर्जुना एकला ||६३०||

दूर करोनि मीपणा | सर्व सोडोनि कामना ||६३१||

स्वयें विश्व होवोनि तो | विश्वामाजीं वावरतो ||६३२||

 

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति |

स्थित्वा स्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ||७२||

 

इति श्रीमद्‌भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितियोऽध्यायः ||२||

 

ब्राम्ही-स्थिती ही लाभतां तया मोह न राहे चित्तीं

प्रयाणीं हि ती टिकुनी होते ब्रह्म-पदाची प्राप्ति.’ ||१४२||

येथे भावार्थ गीतेचा द्वितीयाध्याय संपला !

ह्यांत असे प्रधानत्वें सांख्य-योग निवेदिला ||२||

 

ऐसा ब्रह्मभाव | अर्जुना निःसीम | भोगितां निष्काम | जाहले जे ||६३३||

परब्रह्म-पद | नित्य परिपूर्ण | पावले ते जाण | अनायासें ||६३४||

ज्ञानरूप होतां | रोधिते ना चित्ता | तयां व्याकुळता | देहान्तींची ||६३५||

ती च ब्रह्मस्थिति | स्वमुखें श्रीपति | सांगे पार्थाप्रति | ऐकें राजा ||६३६||

संजय तो बोले | ऐसी कृष्ण-वाणी | ऐकोनियां मनीं | पार्थ म्हणे ||६३७||

आमुचिया काजा | आला युक्तिवाद | आतां श्रीगोविंद | बोलिला जो ||६३८||

बुद्धियोग श्रेष्ठ | कर्ममात्र गौण | त्याज्य तीं म्हणोन | सर्व कर्में ||६३९||

तरी आतां नको | मज झुंजावया | कासया हें वायां | घोर कर्म ||६४०||

ऐसा आशंकोन | आनंदें अर्जुन | आतां भला प्रश्न | विचारील ||६४१||

असे तो प्रसंग | सुरस सुंदर | धर्माचें आगर | सकळ हि ||६४२||

कीं तो विवेकाचा | अमृत-सागर | अनंत अपार | परिपूर्ण ||६४३||

सर्वज्ञांचा राजा | स्वयें कृष्णनाथ | संवादेल जेथ | अर्जुनाशीं ||६४४||

तीच कथा आतां | निवृत्तीचा दास | सांगे श्रोतयांस | ज्ञानदेव ||६४५||

इति श्री स्वामी स्वरूपानंदविरचित श्रीमत् अभंग-ज्ञानेश्वरी

द्वितीयोऽध्यायः |

हरये नमः | हरये नमः | हरये नमः |

श्रीकृष्णार्पणमस्तु |

 

श्री ज्ञानदेव - वंदन

नमितों योगी थोर विरागी तत्वज्ञानी  संत ।

तो सत्कविवर परात्पर गुरु ज्ञानदेव भगवंत ।। १ ।।

 

स्मरण तयाचें होतां साचें चित्तीं हर्ष न मावे ।

म्हणुनि वाटते पुनःपुन्हां ते पावन चरण नमावे ।। २ ।।

 

अनन्यभावें शरण रिघावें अहंकार सांडून ।

झणिं टाकावी तयावरूनियां काय कुरवंडून ।। ३ ।।

 

आणि पाहावें नितांत-सुंदर तेजोमय तें रूप ।

सहज साधनीं नित्य रंगुनी व्हावे मग तद्रूप ।। ४ ।।

 

ज्ञानेशाला नमितां झाला श्रीसद्गुरुला तोष ।

वरदहस्त मस्तकीं  ठेवुनी देई मज आदेश ।। ५ ।।

 

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |

| ॐ राम कृष्ण हरि |